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वर्तमान क्षत्रियकुण्ड अति प्राचीन स्थान है। कुण्डचाट पर नदी के दोनों ओर दो प्राचीन जिनालय है एवं पहाड़ी पार करने पर जन्मस्थान का मन्दिर आता है। जहां सिद्धार्थ राजा का महल था वर्तमान जन्मकश्यामक मन्दिर से दो मील लोचा पानी में जंगल झाड़ी के बीच उसके लण्डर विद्यमान हैं। यहां के मन्दिरों की ईंटें पन्द्रह सौ वर्ष प्राचीन हैं । प्राचीन काल में क्षत्रियकुण्ड यात्रार्थ जेन यात्री सव समय-समय पर विशाल परिमाण में आता रहता था। इस प्रदेश के अधिकारियों के पूर्वज जैन थे एवं भरत चक्रवर्ती के मंत्री श्रीदल के वंशज मंत्रिदलीय महतियाण जैन जाति इन तीर्थों की देख-रेख बर बर करती रहती थी तथा पड़ोसी प्रान्तों में भी प्राचीन जैनजाति सराक (श्रावक) निवास करते थे जो समय-समय पर यात्रार्थ आते थे। यद्यपि प्राचीन साहित्य नष्ट हो जाने से एवं उनकी नकलें करके प्रचारित न रहने से अधिक उल्लेख नहीं पाये जाते फिर भी वहां के ऐतिहा सिक संघ यात्रा वर्गन जो मिलते हैं वे प्राचीन अविच्छिन्न परम्परा को ही प्रमाणित करते हैं।
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चेत्यवासी परम्परा समाप्त हो जाने से उनका इतिहास भी लुप्त हो गया। सुविहित परम्परा वर्तमान गच्छों का इतिहास भी परवर्ती परम्परा से ही विस्तृत लिखा गया। युगप्रधानाचार्य गुर्वावली एक प्राचीन और अत्यन्त प्रामाणिक ग्रन्थ है जिसमें चौदहवीं शताब्दी तक की घटनाएँ दैनन्दिनी की भाँति सवस्तिार आलेखित मिलती हैं। उसमें लिखा है कि सं० १३५२ में कलिकाल केवली श्री जिनचन्द्रसूरिजी के उपदेश से वाचक राजशेखर, सुबुद्धिराज, हेमतिलक गणि पुण्यकीर्ति गणि रत्नमंदिर मुनि सहित श्री वज्रगांव ( नालन्दा) में विचरे। वहां के ठक्कुर रत्नपल सा० चाहड़ प्रधान श्रावक प्रेषित श्रावक भाई हेमराज बांबू सपरिवार सा० दोहित्थ पुत्र मूलदेव श्रावक ने श्री कोशाम्बी, वाराणसी. काकन्दी, राजगृह पावापुरी, नालन्दा, क्षत्रियकुण्ड
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ग्राम
अयोध्या, रत्नपुरादि जिन जन्म कल्याणकादि पवित्र स्थानों की यात्रा की। उन्हीं श्रावक संघ के साथ समुदाय सहित राजशेखरगणि ने हस्तिनापुर तीर्थादि यात्रा करके राजगृह समीपवर्ती उद्दड़-बिहार ( बिहार सरीफ) में चातुर्मास किया, नन्दी महोत्सव माला-रोपणादि उत्सव सम्पन्न हुए ।
सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक प्रतिशोधक सुप्रसिद्ध शासन प्रभावक श्री जिनप्रभसूरिजी भी तीर्थमाला स्तव में विधिवत् वन्दना करने का उल्लेख करते हैं। यतः खत्तियकुंड गामे पावा नालिंद जंभियग्गामें । एवं उन्होंने चतुराशीति तीर्थं नाम कल्प तथा शत्रुंजय तीर्थकल्प में भी 'कुण्डग्राम' का उल्लेख किया है।
सं० १४३१ में अयोध्या स्थित श्री लोकहिताचार्य के प्रति अणहिलपुर से श्री जिनोदयसूरि प्रेषित विज्ञप्ति - महालेख से विदित होता है कि लोकहिताचार्य जी इतः पूर्व मंत्रिदलीय बंशोद्भव ठ० चन्द्रांगज सुश्रावक राजदेव आदि के निवेदन से बिहार व राजगृह में विचरे थे। उस समय वहां कई नव्य जिन प्रासादों का निर्माण हुआ था सूरिजी वहां से ब्राह्मणकुण्ड व क्षत्रियकुण्ड जाकर यात्रा कर आये फिर वापस राजगृह आकर विपुलाचल व वैभारगिरि पर विम्बादि की प्रतिष्ठा कराई ।
श्री जिनवर्द्धनसूरि रास (सं० १४८१ रचित) में उनके पांच वर्ष पर्यन्त पूर्व देश में विचरण कर नाना धर्म प्रभावना करने का उल्लेख है, जिसमें पावापुरी, नालन्दा, कुण्डग्राम काकन्दी तीर्थ की यात्रा का भी वर्णन है । श्री जिनवर्द्धन सूरिजी ने स्वयं सं० १४६७ में पूरवदेश चेत्य परिपाटी की रचना की है जिसमें ब्राह्मणकुंड, क्षत्रियकुंड और काकन्दी की यात्रा करने का निम्नोक्त उल्लेख किया है।
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पावापूर नालिंदा गामि, कुंडगामि कार्यदीठामि । वीर जिणेसर नयर विहारि जिनवर वंदह सवि विस्तारि ॥
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