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है ।२८ प्रशस्त राग की पात्रता-अपात्रता भी फल की इसीलिए, सम्भवतः करुणा को मोह का चिह्न बताया अनुकूलता-प्रतिकूलता की 'अल्पता-अधिकता' करती गया है।३३ जब कि सभी जीवों में आत्मा एक जैसी है । २९ गृहस्थ ( सागार ) साधक की दृष्टि में शुभोपयोग है तो उनमें छोटे-बड़े, ऊँच-नीच की भावना लानाकी स्थिति 'अशुभोपयोग की तुलना में' मुख्य रूप से 'अज्ञान' ही कहा जाएगा।३४ परमार्थतः तो सांसारिक ग्राह्य है। शुभोपयोग में स्थिरता के अनन्तर ही वह पदार्थ, यहाँ तक कि अपना शरीर भी स्थायी नहीं, अतः शुद्धोपयोग के प्रति अग्रसर हो सकता है, इसीलिए कुछ उनके आधार पर स्वयं को उच्च तथा दूसरे को नीच विचारक 'सराग चारित्र' को वीतराग चारित्र में साधन समझना असंगत ही है ।३५ इसके अतिरिक्त, दानादि मानते हैं ।३० किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव अपने पद के अनुरूप कार्यों में कतृ त्व-भावना भी त्याज्य है, क्योंकि पारमार्थिक पुण्याचरण करता हुआ वीतराग चारित्र में रहता हुआ, दृष्टि से कोई द्रव्य किसी ‘पर द्रव्य' का कर्ता ही नहीं उसका दिव्य वैभव फल भोगता हुआ भी पुण्याचरण होता ।३६ कोई भी देव या मनुष्य हो, किसी का न तो को मोक्ष का साक्षात् कारण नहीं मानता, उस प्राप्त वैभव । उपकार कर सकता है और न अपकार ही।३७ अपने को स्वपद नहीं स्वीकारता। .
शुभाशुभ कर्म ही अपना शुभ या अशुभ करते हैं। मैं व्यवहार-धर्म करते हुए भी व्यवहार से ऊपर उठना कैसे किसी को मारता हूँ या जिलाता हूँ-यह भावनाएं सम्भव:
'मूढ़ता' हैं ।३८ करुणा, अनुकम्पा, दया आदि कार्य प्रशस्त होते हुए उक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि अनु- भी शुभोपयोग वीतरागता की तुलना में कुछ नीची स्थिति कम्पा, दया, करुणा आदि कार्य किए तो जाएँ,३९ किन्तु के द्योतक हैं । ३१ इसका कारण यह है कि इन कार्यों में ममत्व, कतृत्व तथा अहंभावनाओं को निकाल कर ।४० 'राग' भाव है जो बन्ध का कारण कहा गया है । ३२ जव इसीलिए व्यवहार-धर्म के आचरण के विषय में आचार्यों कोई व्यक्ति किसी पर दया, करुणा आदि प्रदर्शित करता का निर्देश है कि ये पुण्य-प्राप्ति हेतु न किये जाएँ ।४१ है तो उसके मन में किसी को दयनीय समझने की, तथा इस निर्देश को ध्यान में रख कर साधक व्यावहारिक पर-उपकार करने के स्वसामर्थ्य को प्रदर्शित करने की धरातल से ऊपर उठता हुआ क्रमशः शुद्धात्म-प्राप्ति के भावना होती है, यह भावना अज्ञानमूलक होती है। लक्ष्य तक पहुँच जाएगा। निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, २८ प्रवचनसार, ३/५४ पर अमृतचन्द्र कृत टीका । २. प्रवचनसार, ३/५४ पर जयसेन कृत टीका । १० प्रवचनसार, ३/७५ पर जयसेन कृत टीका ; आत्मानुशासन, १२२ ।
प्रवचनसार, ३/४५ पर अमृतचन्द्र कृत टीका। ३२ प्रवचनसार, २/८७, ३/४३ ।
प्रवचनसार, १/८५।
प्रवचनसार, २/२२ । ३५ प्रवचनसार, २/१०१ । ३६ समयसार, ३/३१ (६६); प्रवचनसार, २/६८। ३७ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३१६ (१२/३१६ )। ३८ समयसार, ७/२५०, २५६ ; प्रवचनसार, १/७६ । ३९ उत्तराध्ययन, ६/२; पुरुषार्थसिद्धयुपाय, ३०; सूत्रकृतांग, १/११-१२ । ४. पंचास्तिकाय, १६६ दशवेकालिक, ६/६ ।। ४१ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, १२/४०६; भावसंग्रह, ४०४ ।
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