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श्रमण भगवान महावीर
वीर प्रभु जग-तारक की पद-धूलि धार हुई धन्य धरा क्षत्रियकुण्ड नरेश्वर का घर धान्य-स्वर्ण से खूब भरा । धन्य धन्य त्रिशला माता जिसने जाया तीर्थंकर को शरण-स्थल मात्र मुमुक्षु के वे वर्तमान जग हितकर जो ।।१।। चैत सुदी तेरस जन्मे छप्पन दिशिकुमरी मिल आई चौसठ इन्द्रों ने मेरु शिखर ले जाकर पाण्डुशिला ठाई। अभिषेक सहन कैसे होगा शक्रन्द्र चित्त में है शंकित जान प्रभु ने वाम पैर अंगुष्ठ चाँप गिरि कृत कम्पित ।। २।। आमल क्रीड़ा में जीत देव महावीर नाम संप्राप्त किया चटशाला में शक्रेन्द्र प्रश्न जैनेन्द्र व्याकरण नाम दिया। मातपिता के भक्त आप करुणामूर्ति संकल्प किया विद्यमानता में इनके नहीं गृह त्यागू अहो धन्य हिया ।। ३ ।। भ्राता नन्दिवर्द्धन आग्रह दो वर्ष और गृहवास रहे देकर संवत्सर दान अनर्गल लो इच्छित ये शब्द कहे। अगहन दशमी था कृष्णपक्ष हो श्रमण शीघ्र वनवास लिया बन दीर्घ तपस्वी और अकिंचन योग ध्यान में चित्त दिया ।। ४ ।।
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