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में पद्मसुन्दर ने अपने शब्दों में नैषध के सोलहवें सर्ग पद्मसुन्दर के पार्श्वनाथ काव्य में प्रचारवादी स्वर की आवृत्ति मात्र कर दी है। नैषध के समान इसमें भी मुखर हैं पर यदुसुन्दर में कवि का जो बिम्ब उभरता है, बारातियों और परिवेषिकाओं का हास-परिहास बहुधा वह चमत्कारवादी आलंकारिक का बिम्ब है। यह स्पष्टतः अमर्यादित है। खेद है, पद्मसुन्दर ने अपनी पवित्रता- नैषध के अतिशय प्रभाव का परिणाम है । पद्मसुन्दर का वादी वृत्ति को भूलकर इन अश्लीलताओं को भी काव्य उद्देश्य 'ग्रन्थ ग्रन्थि' से काव्य को जटिल बनाना नहीं है, में स्थान दिया है। अगले दो सर्ग नैषध से स्वतन्त्र हैं। परन्तु उसका काव्य नेषध की मूलवृत्ति तथा काव्य अन्तिम दो सर्ग, जिनमें क्रमशः रतिक्रीड़ा और सन्ध्या, रूढ़ियों से शन्य नहीं है। पद्मसुन्दर को श्रीहर्ष की तरह चन्द्रोदय आदि के वर्णन हैं, नैषध के अत्यधिक ऋणी हैं। शृंगारकला का कवि मानना तो उचित नहीं है, न ही कालिदास, कुमारदास तथा श्रीहर्ष के अतिरिक्त पद्म वह कामशास्त्र का अध्ययन करने के बाद काव्य रचना सुन्दर ही ऐसा कवि है जिसने वर-वध के प्रथम समागम में प्रवृत्त हुआ है पर जिस मुक्तता से उसने विवाहोत्तर का वर्णन किया है। स्वयं श्रीहर्ष का वर्णन कुमारसम्भव भोज में बारातियों के हास-परिहास और नवदम्पती की के अष्टम सर्ग से प्रभावित है। श्रीहर्ष ने कालिदास के रति केलि का वर्णन किया है, वह उसकी रति विशारदता भावों को ही नहीं, रथोद्धता छन्द को भी ग्रहण किया है। का निश्चित संकेत है। कनका का नखशिख वर्णन यदुसुन्दर के ग्यारहवें सर्ग में भी यही छन्द प्रयुक्त है। (२.१-४७) भी उसकी कामशास्त्र में प्रवीणता को बारहवें सर्ग का चन्द्रोदय आदि का वर्णन, नैषध की तरह बिम्बित करता है। अष्टम् सर्ग का ज्यौनार-वर्णन तो (सर्ग २१) नवदम्पती की सम्भोगकेलियों के लिये समु- खुल्लमखुल्ला मर्यादा का उल्लंघन है। उसके अन्तर्गत
वरण निर्मित करता है। इसमें श्रीहर्ष के बारातियों और परिवेषिकाओं की कुछ चेष्टाएं बहुत भावों तथा शब्दावली की कमी नहीं है। वस्तुतः काव्य फूहड़ और अश्लील हैं । १. श्रीहर्ष के समान इन अश्लीलमें मौलिकता के नाम पर भाषा है, यद्यपि उसमें भी श्रीहर्ष ताओं को पद्मसुन्दर की विलासिता का द्योतक मानना की भाषा का गहरा पुट है।
तो शायद उचित नहीं पर यह उसकी पवित्रतावादी धार्मिक
वृत्ति पर करारा व्यंग्य है, इसमें दो मत नहीं हो सकते। पद्मसुन्दर की काव्य प्रतिभा:
नैषधचरित के इस सर्वव्यापी प्रभाव के कारण पद्म- आदर्शभूत नैषधचरित की भाँति यदुसुन्दर का सुन्दर को मौलिकता का श्रेय देना उसके प्रति अन्याय अंगी रस शृगार है । पद्मसुन्दर को नवरसों का परम्पराहोगा। यदुसुन्दर में जो कुछ है, वह प्रायः सब श्रीहर्ष गत विधान मान्य है (नवरसनिलयः को नु सौहित्यकी पूँजी है। फिर भी इसे सामान्यतः पद्मसुन्दर की मेति २८३) पर वह शृंगार की सर्वोच्चता पर मुग्ध 'मौलिक' रचना मानकर कवि की काव्य प्रतिभा का है। उसकी परिभाषा में शृंगार की तुलना में अन्य रस मूल्यांकन किया जा सकता है।
तुच्छ हैं (अन्य रसातिशायी शृंगार ६.५३)। शान्त
९ विस्तृत विवेचन के लिये देखिये मेरा निबन्ध 'Yadusundara: A Unique Adaptation of Naisadhacarita', VIJ ( Hoshiarpur ), xx. 103-123. अन्यः स्फुट स्फटिक चत्वर संस्थितायास्तन्व्या वररांगमनबिम्बितमोक्षमाणः । सामाजिकेषु नयनांचल सूचनेन सांहासिनं स्फुटमचीकरदच्छ हासः॥ यदु०, ८.३७ वृत्तं निधाय निजभोजनेऽसौ सन्मोदकद्वयमतीव पुरः स्थितायाः। संघाय वक्षसि दृशं करमर्दनानि चक्रे त्रपानतमुखी सुमुखी बभूव ॥ वही, ८.५२ प्रागर्थयन्निकृत एष विलासवत्या तत्सुंमुखं विटपतिः स भुजि क्रियायाम् । क्षिप्त्वांगुलीः स्ववदने ननु मार्जितानलेहापदेशत इयं परितोऽनुनीता ॥ वही, ८५४
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