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________________ यह चित्र पट हमारे शंकरदान नाहटा कला भवन में है और चौदहवीं शती के शेप की उत्कृष्ट चित्रकला का नमूना है। इसका समय विक्रम संवत् १४०० के आस- पास का है। (२) ढाई द्वीप का पट-यह पट २२४२२ इंच माप का है और सोलहवीं शती की अपभ्रश कला का सुन्दर उदाहरण होते हुए भी मध्य स्थित जम्बू द्वीप का भाग नष्ट हो कर लुप्त हो गया है। इसमें नगर, खण्ड, पर्वतादि के नाम भी लिखे हुये थे । धातकीखण्ड व पुष्कर द्वीप में एक-एक जिनेश्वर व उनके उभय पक्ष में कोणाकृति के मध्य नर-नारी युगल स्वतन्त्र कक्ष में बनाए हैं । समुद्र व नदियों का जल गहरे आसमानी रंग का है व काली लहरें व मत्स्यादि जंतु दिखाए हैं। पट के चारों कोनों में चार शाश्वत जिनालय भी कलापूर्ण शिखरबद्ध बताए है। वलय और चतुष्कोण ह्रीं कार के मध्य रिक्त स्थान में नीचे से प्रारंभ हो कर अक्रम से उभय पक्ष में ॐ ह्रीं अ सि आ उ सा इ उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः स्वाहा ॥ लिखा हुआ है । द्वितीय वलय में कमल की आठ पंखुड़ियाँ हैं जिन पर अर्हन्त भगवान के सामने अर्थात् नीचे ॐ ह्रीं सिद्धेभ्यः स्वाहा ।।२।। दाहिनी ओर ॐ ह्रीं आचार्येभ्यो स्वाहा ।।३।। ऊपरिभाग में अर्थात् पृष्ठभाग की पंखुड़ी पर ॐ ह्रीं उपाध्यायेभ्यः स्वाहा ॥४।। वाम पार्श्व की पंखुड़ी पर ॐ ह्रीं सर्व साधुभ्यः स्वाहा |५| फिर ॐ ह्रीं सम्यक् दर्शनाय स्वाहा ॥६।। तत्पश्चात् सिद्ध भगव न के बाद ॐ ह्रीं सम्यक ज्ञानाय स्वाहा ।।७।। फिर ॐ ह्रीं सम्यक चारित्राय स्वाहा ।।८।। लिख कर अंतिम पंखुड़ी पर ॐ ह्रीं सम्यक तपसे स्वाहा ||९|| लिखा है। यहाँ तक नवपदों की स्थापना पूर्ण कर तृतीय वलय में षोडश दल की पंखुड़ियाँ बनाई हैं। पंखुड़ियों के मध्यवर्ती रिक्तस्थान को काले रंग के बीच रिक्त पत्तियाँ छोड़कर अलंकरण किया गया है। (३) सिद्धचक्रपट-यह चित्रपट एक फुट लंवा व नौ इंच चौड़ा है । इसके बीच में लाल रंग की रेखाओं से ह्रीं कार का वलय बनाकर ऊपरिभाग में ही कार से प्रारम्भ होकर साढ़े तीन आँटा लगने के बाद 'क्रों' मंत्राक्षर से शेष किया गया है । इस चक्र के मध्यवर्ती केन्द्रीय अरिहंत भगवान के चित्र से परिचय कराने का प्रयत्न किया जाता है-मध्य से प्रथम वलय के अन्दर बना हुआ चतुष्कोण ही कार भी साढ़े तीन घेरों में 'क्रों वीजाक्षर से शेष होता है । इसकी मध्यवर्ती पृष्ठभूमि चतुष्कोण है जिसमें सिंहासन पर अरिहंत भगवान विराजमान है । प्रभु प्रतिमा मुकुट, हार. भुजबंद, श्रीफल और मुक्ताहार आदि आभरणों से सुशोभित है । भगवान के स्कन्धों तक पृष्ठभूमि में सिंहासन का रंग नीला है तदुपरि भाग में हरी नाल वाले लाल रंग के बंद कमल झूल रहे हैं । प्रभु के नेत्र अणियाले और भौंहें लहरदार धनुषाकृति को है । नीचे का आसन पटकोण या अष्टकोणाकृति वाला है। तृतीय वलय की पंखुड़ियों पर लालरंग से एक-एक पंखुड़ी छोड़ कर आठों पंखुड़ियों में ॐ णमो अरिहंताणं लिखा है। अवशिष्ट आठ पंक्तियों में ॐ ह्रीं ॐ अर्ह अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋल ल. ए ऐ ओ औ अं अः ||१|| फिर ॐ ह्रीं अहं क ख ग घ ङ ह्रीं स्वाहा ॥२॥ फिर ॐ ह्रीं अहं च छ ज झ ञ स्वाहा ।।३।। फिर ॐ ह्रीं अहं ट ठ ड ढ ण ह्रीं स्वाहा ।। फिर ॐ ह्रीं अर्ह त थ द ध न ह्रीं स्वाहा । तत्पश्चात् ॐ ह्रीं प फ ब भ म ह्रीं स्वाहा । फिर "ॐ ह्रीँ अर्ह य र ल व ह्रीं स्वाहा ।। फिर ॐ ह्रीं ॐ अहँ श ष स ह ह्रीं स्वाहा लिख कर षोडश दल की पूर्ति की गई है। चतुर्थ वलय में चार दिशा और चार विदिशाओं में केवल ॐ ह्रीं लिख कर रिक्त रखा हुआ। इस ह्रीं कार वलय के चतुर्दिक लाल रंग की पृष्ठ [ १३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012041
Book TitleBhanvarlal Nahta Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani
PublisherBhanvarlal Nahta Abhinandan Samaroh Samiti
Publication Year1986
Total Pages450
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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