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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ।। पान ३५ ॥ anager चित्रकर्म अक्षनिक्षेप इनि आदिविषै सो यहु है ऐसें स्थापन कीजिये ताकूं स्थापनानिक्षेप कहिये ॥ इहां प्रयोजन ऐसा जो पहले नाम लेयकै पीछें अन्यवस्तुविषै अन्यकी प्रतिष्ठा करनी । ताके भेद दोय, एक सद्भावस्थापना, एक असद्भावस्थापना । तहां भावरूप जो वस्तु, ताकै समान प्रतिमा जामैं मुख्य आकार ऐसा होय, जो ' देखनेवालेकै भावरूपकी बुद्धि उपजि आवै ' ताकूं सद्भावस्थापना कहिये | बहुरि मुख्य आकारशून्य वस्तुमात्र होय ताकूं असद्भावस्थापना कहिये । जामें पैला उपदेशही सोयहु भावरूप है ऐसें जानी जाय ॥ इहां ऐसा जानना - जो नामनिक्षेपविर्षे तौ लोककै आदर तथा उपकारकी वांछा न होय है अरु स्थापनानिक्षेपविषै आदर उपकारकी वांछा देखिये है। तहां कोई स्थापना तौ लोक ऐसी करै है, जो घने काल रहवो करै । बहुरि कोई ऐसी करै है, जो अल्पकालही रहै ॥ इहां कोई पूछै - अरहंतादिकका असद्भावस्थापन अन्यवस्तुविषै कीजिये कि नांही? ताका उत्तर - जो इस हुंडावसर्पिणी कालविषै न करिये । जातें अन्यमती अतदाकार मूर्ति अनेक देवनिकी स्थापन करे हैं । तहां यह निश्चय न होय, जो, यह मूर्ति कोंनकी है । तातें मुख्य आकार जामैं करिये, देखतेही वीतरागमुद्राकी बुद्धि उपजि आवे ऐसीही अरहंतादिककी स्थापना युक्त है । ऐसें वसुनंदिसिद्धांतचक्रवर्ती आदि के वचन हैं। उनिने मने करी है । मुख्य आकारविषैभी
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