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॥सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान ३३ ॥
जीवके धर्म हैं । ऐसें पांचौंही तत्त्व जीव अजीव इनि दोऊनिके धर्म हैं ते श्रद्धानके ज्ञानके चारित्रके विषय हैं । अन्य सर्वविषय इनिमें अंतर्भूत हैं ।
आगें कहै हैं, कि, याप्रकार कहे जे सम्यग्दर्शनादिक तथा जीवादिक तत्त्व तिनिका लोकव्यवहारविर्षे व्यभिचार आवै है। नाममात्रकुंभी जीव कहै हैं । स्थापनामात्रकूभी जीव कहै हैं । द्रव्यकुंभी जीव कहै हैं । भावकुंभी जीव कहै हैं । तातें तिनिका यथार्थस्वरूप समझेंविना अन्यथापनां आवै है । ताके निराकरण अर्थ सूत्र कहै हैं
नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्यासः ॥५॥ याका अर्थ-- नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव इनि च्यारिनिकरि तिनि जीवादिकपदार्थनिका न्यास कहिये निक्षेप है । जो वस्तुमें जो गुण न पाईए ताविर्षे लोकव्यवहारप्रवृत्तिके अर्थि | अपने उपयोग” नाम करना, ताकू नाम कहिये । इहां गुणशदतें द्रव्य कर्म जाति ए सर्वभी ग्रहण करणा । तहां जातिद्वार नाम तो जैसे गऊ अश्व घट है । गुणद्वार जैसे काहूकू धवलगुणकै द्वार धवल कहिये । कर्मद्वार जैसें चलतेकू चलता कहिये । द्रव्यद्धार जैसें कुंडल द्रव्य पहरै होय, ता• कुंडली कहिये, तथा दंड लिये होय ताळू दंडी कहिये । इनिविना वक्ता इच्छातें वस्तुका
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