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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ॥ पान ३२ ।।
तथा एकद्रव्य अनंतपर्यायात्मक है । ऐसें अनंत द्रव्य हैं ॥ तहां आचार्य मध्यमप्रस्थान विचारि कहै हैं। संक्षेप कहै तो विशेष ज्ञानीही समझै । विस्तार कहै तो कहांताई कहै । तातें अवश्य श्रद्धानका विषय थे ते कहे । केई कहै हैं, एक जीवही तत्वार्थ है; सो अयुक्त है । परकू जीवकी सिद्धि वचनतें कराई है । वचन है सो अजीव है । जो वचनकुंभी जीव कहिये, तो याकै स्वसंवेदन चाहिए, सो नाही । बहुरि वह कहै, दूजा जीव होय तौ ताकै स्वसंवेदन कहिये एकही परमात्मा है, सो अविद्याकरि बहुत दीखे है । ताका उत्तर -- जो, जीव तो बहुत हैं, तोकू एक अविद्याकरि दीखे है । जो तू कहै ' मोसिवाय दुजा कोई नांही' तो दूजाभी कहै, मोसिवाय और कोई नांही । तो एकै कहै सर्वशून्यता आवै है । जो कहे ' मोसिवाई' दूजा है कि नाही? ऐसा संशय है । तो अद्वैतकाभी निर्णय न होयगा । जो कहै, “आगमतें एक पुरुषकी सिद्धि है ' ताकू कहिये, हमारे
आगमतें नानापुरुषकी सिद्धि है। प्रत्यक्षप्रमाणतें हमारा आगम तो सिद्ध हो है । अर एक पुरुष | कहनहारा आगम प्रत्यक्षप्रमाणते मिले नाही । बहुरि जैसें वचन अजीव है, तैसें अजीवभी पृथ्वी ||
आदि बहुत हैं । बहुरि जीवकै कायादिककी क्रियारूप आस्रव है । बहुरि बंध है सो पुरुषकाभी धर्म है । जाते जडकाही धर्म होय तौ पुरुष बंधका फल काहेकू पावै । बहुरि संवर निर्जरा मोक्ष हैं तेभी
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