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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ।। पान ३० ।।
| तहां चेतनालक्षण तो जीव है । सो चेतना ज्ञानचेतना, कर्मचेतना, कर्मफलचेतना ऐसे अनेकरूप है । याते उलटा चेतनारहित होय सो अजीव है । शुभअशुभ कर्मका आगमनका द्वाररूप आस्रव है। जीव अर कर्मके प्रदेश एकक्षेत्रावगाहसंबंधरूप बंध है । आस्रवका रुकनां सो संवर है । एकदेशकर्मका क्षय सो निर्जरा है । समस्तकर्मका वियोग (क्षय ) सो मोक्ष है । इनिका विस्ताररूप व्याख्यान आगें होयगा । तिनिमें सर्वफलका आत्मा आश्रय है, तातें सूत्रमैं आदिवि जीव कह्या । ताके उपकारी अजीव है, तातें ताकै लगताही अजीव कह्या । जीव अजीव दोऊनिके संबंध आस्रव है, तातें ताके अनंतर आस्रव कह्या । आस्रवपूर्वक बंध हो है, तातें ताकै लगता बंध कह्या । संवर होतें बंधका अभाव हो है, तातें ताकै लगताही संवर कह्या । संवरपूर्वक निर्जरा | होय है, तात् ताकै लगता निर्जरा कह्या । अंतकेविर्षे मोक्षकी प्राप्ति है, तातें अंतमें मोक्ष कह्या । ऐसें इनिका पाठका अनुक्रम है ॥
इहां कोई कहै-- पुण्यपापका ग्रहण यामैं करणां योग्य था, अन्य आचार्यनिनें नव पदार्थ | कहे हैं । ताकू कहिये- पुण्यपाप आस्रवबंधमें गर्भित हैं, ताक् तिनिका ग्रहण न किया । फेरि | कहै, जो, ऐसें है तो आस्रवादिकभी जीव अजीवविर्षे गर्भित हैं, दोयही तत्त्व कहने थे । ताका
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