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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ॥ पान २९ ।।
तिसतें सम्यग्दर्शन उपजे है । पीछे सम्यग्दर्शन होय तब सम्यग्ज्ञान नाम पावै । तातें यहु अपेक्षा जाननी । याकी उत्पत्तीका विशेष ऐसा है— अंतरंग तो दर्शनमोहका उपशम क्षयोपशम क्षय होय । बहुरि बाह्य द्रव्य क्षेत्र काल भावादि समस्त कारण मिले तब उत्पत्ति होय ॥ इहां कोई पूछदर्शनमोहका उपशमादिक कारण है, तो सर्वही प्राणिनिकै सदांही क्यों न होय ? ताका उत्तर-- दर्शनमोहका उपशमादि करणहाराभी प्रतिपक्षी द्रव्य क्षेत्र काल भाव हैं । ते कौंन सो कहिये? जिनेंद्रबिंबादिक तौ द्रव्य हैं । समवसरणादिक क्षेत्र हैं । अर्द्धपुद्गलपरिवर्तनादिक काल है । अधःप्रवृत्तिकरणादिक भाव हैं । इनिके होते दर्शनमोहादिकका उपशमादि हो है । सो इनिका | निमित्त होनां भव्य जीवहीकै है । अभव्यकै नाही होय है । यह वस्तुस्वभाव है । ऐसें निकटभव्यकै दर्शनमोहका उपशमादिक अंतरंग कारण होतें बाह्य निसर्ग तथा अधिगम ज्ञान होते सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होय है ॥ आगें तत्त्व कहा है ? ऐसा प्रश्न होते तत्त्वकौं कहै हैं---
जीवाजीवास्रवबन्धसँवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥४॥ याका अर्थ-- जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये सात हैं ते तत्त्व हैं ।
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