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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २७ ॥
ఆయనకు
आगै यहु सम्यग्दर्शन जीवादि तत्त्वार्थगोचर है सो कैसे उपजै है ? ऐसा प्रश्न होते, सूत्र कहै हैं
॥तन्निसर्गादधिगमाहा ॥३॥ याका अर्थ- तत् कहिये सो सम्यग्दर्शन निसर्गते अर अधिगमते उपजै है । निसर्ग स्वभावकू कहिये । अधिगम अर्थके ज्ञानकू कहिये । इनि दोऊषं सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिरूप क्रियाके कारणकरि कहे । ऐसें सम्यग्दर्शन है सो निसर्ग वा अधिगम इन दोऊनितें उपजै है ऐसा जाननां । इहां प्रश्न- निसर्गज सम्यग्दर्शनविर्षे अर्थका ज्ञान है कि नाही? जो है तो यहभी अधिगमज
भया । बहुरि जो अर्थावबोध नाही है तो विनांजाने तत्त्वार्थविर्षे श्रद्धान कैसे भया । ताका उत्तर| दोनूही सम्यग्दर्शनविर्षे अंतरंगकारण तौ दर्शनमोहका उपशम क्षयोपशम क्षय तीनूंही समान हैं। ताके होतें जो बाह्य परोपदेशविनां होय ताकू तौ निसर्गज कहिये । बहुरि जो परोपदेशपूर्वक होय ताकू अधिगमज कहिये इनिमें यह भेद है ॥ इहां सूत्रवि तत् ऐमा शब्दका ग्रहण, सो पहले | सूत्रमें सम्यग्दर्शन कह्या है, ताके ग्रहण अर्थि कह्या है । कोई कहै-- लगता सूत्रविर्षे कह्या सो | विना तत् शब्दही ग्रहण होय है । ताळू कहिये, मोक्षमार्गका प्रकरण है अर मोक्षमार्ग प्रधान है,
కులం కులుకులంకులను
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