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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २६ ॥
तत्त्वार्थश्रद्धानहीकू स्वसंवेदनगोचर क्यों न कह्या ? ताका उत्तर- जो, तत्त्वार्थश्रद्धानरूप जो सम्यग्दर्शन है सो दर्शनमोहके उपशम क्षयोपशम क्षयतें जो आत्मस्वरूपका लाभ होय ताकू कहिये है । सो यहु छद्मस्थकै स्वसंवेदनगोचर नाही अर प्रशमादि स्वसंवेदनगोचर है । ताते इनितें सम्यग्दर्शनका अनुमान करनां । ए अभेदविवक्षातें सम्यग्दर्शनतें अभिन्न है । तथापि भेदविवक्षातें भिन्न है । जातें ए सम्यग्दर्शनके कार्य है तातें कार्यते कारणका अनुमान हो है । केई वादी
सम्यग्ज्ञानहीकों सम्यग्दर्शन कहै हैं । तिनप्रति ज्ञानतें भेद जनावनेकै अर्थ सम्यग्दर्शनके कार्य जे | प्रशमादिक ते जुदे कहिये । तिनितें ताकू जुदा जानिये ॥
कोई कहै-प्रशमादिक मिथ्यादृष्टिसम्यग्दृष्टीकी कायादिकी क्रियाका व्यवहार समान दीखै | तहां कैसे निर्णय होय ? ताका उत्तर-जो आपकै जैसे दीखै तैसे पैलाकाभी परीक्षाकरि निर्णय | करनां । बहुरि वीतरागकै सम्यग्दर्शन अपने आत्माके विशुद्धपरिणामतेही गम्य है । तहां प्रशमादिकका अधिकार नाही । ऐसें तत्त्वार्थश्रद्धान दर्शनमोहरहित आत्माका परिणाम है सो सम्यग्दर्शन है । यात केई अन्यवादी इच्छादिक कर्मके परिणामकू सम्यग्दर्शन कहै हैं तिनिका निराकरण भया । जातें कर्मका परिणाम कर्मअभावरूप जो मोक्ष ताका कारण होय नाही ॥
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