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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता || प्रथम अध्याय ॥ पान २४ ॥
अथवा तत्त्व एकपणांहीकूं कहै हैं, ताका प्रसंग आवै । केई ऐसें कहे हैं- जो, सवर्वस्तु एक पुरुषही है । तातें तिनि सर्वनितैं भिन्न अनेकांतात्मक वस्तूका स्वरूप है, ऐसें जनावनेके अर्थि तत्त्वार्थका ग्रहण कीया है ||
ऐसा तत्त्वार्थश्रद्धानस्वरूप सम्यग्दर्शन है, सो दोय प्रकार है । एक सरागसम्यक्त्व, एक वीतरागसम्यक्त्व । तहां प्रशम, संवेग, अनुकंपा, आस्तिक्य इनि च्यारि भावनिकरि प्रगट होय; सो तौ सरागसम्यग्दर्शन है । तहां अनंतानुबंधी कषायकी चौकडीसंबंधी रागद्वेषादिकका तथा मिथ्यात्व सम्यद्मिथ्यात्वका जहा उदय नांही ताकूं प्रशम कहिये । बहुरि पंचपरिवर्तनरूप जो संसार ता भय उपजना ताकूं संवेग कहिये । बहुरि त्रस स्थावर प्राणीनिविषै दया होनां ताकूं अनुकंपा कहिये । बहुरि जीवादि तत्त्वनिविषै युक्ति आगमकरि जैसाका तैसा अंगीकार करनां माननां ताकूं आस्तिक्य कहिये । ए च्यारी चिन्ह सम्यग्दर्शन कूं जनावे हैं, ए सम्यग्दर्शनके कार्य हैं । तातैं कार्यकरि कारणका अनुमान होय है । तहां अपनें तो स्वसंवेदनतें जाने जाय है । अर परके कायवचन के क्रियाविशेषतें जाने जाय है । सम्यग्दर्शनविनां मिथ्यादृष्टी के ऐसें होय नांही । इहां कोई कहै, क्रोधका उपशम तौ मिथ्यादृष्टीकैभी कोई होय है, ताकैभी प्रशम आवै है । ताकूं
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