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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ।। पान २५ ॥
कहिये- मिथ्यादृष्टिनिकै अनंतानुबंधी मानका उदय है । सर्वथा एकांततत्त्व मिथ्या है, ताविर्षे सत्यार्थका अभिमान है । बहुरि अनेकांतात्मकतत्त्ववि देषका अवश्य सद्भाव है । बहुरि स्थावरजीवनिका घात निःशंकपणे करै है । तातै प्रशमभी नाही, अर संवेग अनुकंपाभी नांही । कोई कहै --- स्थावरजीवनिका घात तो अज्ञानतें सम्यग्दृष्टीकैभी होय है, तौ ताकै अनुकंपा कैसे कहिये ? ताका उत्तर- जो सम्यग्दृष्टीकै जीवतत्त्वका ज्ञान है, सो अज्ञानतें तौ घातविर्षे प्रवृत्ति नांही । चारित्रमोहके उदयतें अविरतिप्रमादतें घात होय, तहां एह अपनां अपराध मानै । ऐसा तो नाही, जो ए जीवही नाही तथा जीवनिके घाततें कहा विगाड है ? । जो ऐसा माने, तौ मिथ्यात्वकाही सद्भाव है।
बहुरि कहै, जो, वाकै अपने माने तत्त्वविर्षे आस्तिक्य है । ताका उत्तर- मिथ्यादृष्टि | तत्त्वको सर्वथा एकांत श्रद्धै है । तहां आस्तिक्य है सो मिथ्यात्व अतिदृढ भया । जातें सर्वथा एकांत वस्तुका स्वरूप नाही । प्रत्यक्षादि प्रमाणकरि बाधित है । ताते जे सर्वथा एकांत श्रद्धान करै हैं ते अहंतके मततें बाह्य हैं, मिथ्यादृष्टी हैं, नास्तिक हैं। बहुरि प्रश्न जो, सम्यग्दर्शनके चिन्ह | प्रशमादिक कहे तिनिकों आपकै स्वसंवेदनगोचर कहे तिनितें सम्यक्तका अनुमान करना कह्या तौ |
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