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प्रस्तावना
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किया है इसलिए वे चौथे अध्यायके प्रथम सूत्रकी उत्थानिकामें इसे इसी रूप में उद्धत करते हैं। साधारणत: ये टीकाकार कहीं पूरे सूत्रको उद्धृत करते हैं और कहीं उसके एक अंशको। पर जितने अंशको उद्धृत करते हैं वह अपने में पूरा होता है। ऐसा व्यत्यय कहीं भी नहीं दिखाई देता कि किसी एक अंश को उद्धृत करते हुए भी वे उस मेंसे समसित प्रारम्भके किसी पदको छोड़ देते हों।
ऐसी अवस्था में हम तो यही अनुमान करते थे कि इन दोनों टीका ग्रन्थों में ऐसा उद्धरण शायद ही मिलेगा जिससे इनकी स्थितिमें सन्देह उत्पन्न किया जा सके। इस दृष्टि से हमने सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यका बारीकीसे पर्यालोचन किया है। किन्तु हमें यह स्वीकार करना पड़ता है कि सर्वार्थ सिद्धि में तो नहीं, किन्तु तत्त्वार्थभाष्य में एक स्थलपर ऐसा स्खलन अवश्य हुआ है जो इसकी स्थितिमें सन्देह उत्पन्न करता है। यह स्खलन अध्याय 1 सूत्र 20 का भाष्य लिखते समय हुआ है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके विषय का प्रतिपादन करनेवाला सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्र इस प्रकार है
मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ।' यही सूत्र तत्त्वार्थभाष्य में इस रूप में उपलब्ध होता है--
मतिश्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायष ।' तत्त्वार्थभाष्य में सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ की अपेक्षा 'द्रव्य' पदके विशेषणरूपसे 'सर्व' पद अधिक स्वीकार किया गया है। किन्तु जब वे ही तत्त्वार्थभाष्यकार इस सूत्रके उत्तरार्धको अध्याय 1 सूत्र 20 के भाष्य में उद्धृत करते हैं तब उसका रूप सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ ले लेता है। यथा
'अत्राह-मतिश्रुतयोस्तुल्यविषयत्वं वक्ष्यति-'द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु' इति' कदाचित् कहा जाय कि इस उल्लेख मेंसे लिपिकारकी असावधानीवश 'सर्व' पद छुट गया होगा, किन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अपनी टीकामें सिद्धसेनगणि और हरिभद्रने भी तत्त्वार्थभाष्यके इस अंशको इसी रूप में स्वीकार किया है। प्रश्न यह है कि जब तत्त्वार्थभाष्यकारने उक्त सूत्र का उत्तरार्ध 'सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेष' स्वीकार किया तब अन्यत्र उसे उद्धत करते समय वे उसके 'सर्व' पदको क्यों छोड़ गये। पदका विस्मरण हो जानेसे ऐसा हुआ होगा यह बात बिना कारणके कुछ नपी-तुली प्रतीत नहीं होती। यह तो हम मान लेते हैं कि प्रमादवश या जान-बूझकर उन्होंने ऐसा नहीं किया होगा, फिर भी यदि विस्मरण होनेसे ही यह व्यत्यय माना जाये तो इसका कोई कारण अवश्य होना चाहिए। हमारा तो खयाल है कि तत्त्वार्थ भाष्य लिखते समय उनके सामने सर्वार्थसिद्धि या सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ अवश्य रहा है और हमने क्या पाठ स्वीकार दिया है इसका विशेष विचार किए बिना उन्होंने अनायास उसके सामने होनेसे सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठका अंश यहाँ उद्धृत कर दिया है। यह भी हो सकता है कि अध्याय 1 सूत्र 20 का भाष्य लिखते समय तक वे यह निश्चय न कर सके हों कि क्या इसमें 'सर्व' पदको 'T' पदका विशेषण बनाना आवश्यक होगा या जो पुराना सूत्रपाठ है उसे अपने मूलरूप में ही रहने दिया जाय और सम्भव है कि ऐसा कुछ निश्चय न कर सकनेके कारण यहाँ उन्होंने पुराने पाठको ही उद्धृत कर दिया हो। हम यह तो मानते हैं कि तत्त्वार्थभाष्य प्रारम्भ करनेके पहले ही वे तत्त्वार्थसूत्रका स्वरूप निश्चित कर चुके थे, फिर भी किसी खास सूत्रके विषय में शंकास्पद बने रहना और तत्त्वार्थभाष्य लिखते समय उसमें परिवर्तन करना सम्भव है। जो कुछ भी हो इस उल्लेखसे इतना निश्चय करने के लिए तो बल मिलता ही है कि तत्त्वार्थभाष्य लिखते समय वाचक उमास्वातिके सामने सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ अवश्य रहा है।
3. अर्थ विकास- इसी प्रकार इन दोनोंके बिम्बप्रतिबिम्बभाव और कहीं-कहीं वस्तुके विवेचनमें तत्त्वार्थभाष्य में अर्थ विकास के स्पष्ट दर्शन होनेसे भी उक्त कथनकी पुष्टि होती है। उदाहरणार्थ-दसवें अध्याय में 'धर्मास्तिकायाभावात' सूत्र आता है। इसके पहले यह बतला आये हैं कि मुक्त जीव अमुक-अमुक कारणसे ऊपर लोकके अन्त तक जाता है। प्रश्न होता है कि वह इसके आगे क्यों नहीं जाता है और इसीके उत्तरस्वरूप बाह्य निमित्तकी मुख्यतासे इस सूत्रकी रचना हुई है। किन्तु यदि टीकाको छोड़ कर केवल
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