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प्रस्तावना
पर्यालोचन करना है। पर्यालोचन के विषय ये हैं-1. अन्य टीकाओंके उल्लेख, 2. सूत्रोल्लेख, और 3. अर्थ विकास।
1. अन्य टीकाओंके उल्लेख-अभी तक प्रचलित परम्पराके अनुसार साधारणतः यह माना जाता है कि दिगम्बर परम्परामान्य सूत्रपाठकी प्रथम टीका सर्वार्थसिद्धि है और श्वेताम्बर परम्परामान्य तत्त्वार्थसूत्रकी प्रथम टीका तत्त्वार्थभाष्य है। तत्त्वार्थभाष्यके विषय में तो कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि वह तत्त्वार्थसूत्रकारकी ही मूल कृति है। और इस आधारसे वे यह निष्कर्ष फलित करते हैं कि आचार्य पूज्यपादने मूल सूत्रपाठमें सुधार करके सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठकी रचना की है जो आज दिगम्बर परम्परा में प्रचलित है। किन्तु इन टीकाग्रन्थों और अन्य प्रमाणोंसे जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनसे यह विषय बहुत कुछ विचारणीय हो जाता है। पहले हम सर्वार्थसिद्धि में दो पाठभेदोंका उल्लेख कर आये हैं। उनमें से दूसरा पाठभेद यदि सूत्रपोथीके आधारसे ही मान लिया जाये तो भी प्रथम पाठभेदको देखते हुए यह अनुमान करना सहजं हो जाता है कि सर्वार्थसिद्धिकारके सामने कोई छोटा-मोटा टीका ग्रन्थ अवश्य था। अन्यथा वे पाठविषयक मतभेदको स्पष्ट करते हुए यह न कहते-'त एवं वर्णयन्ति' इत्यादि ।
___ तत्त्वार्थवार्तिक में अध्याय पांच सूत्र चारका विवरण लिखते समय यह प्रश्न उठाया गया है कि 'वृत्तिमें पांच ही द्रव्य कहे हैं, इसलिए छह द्रव्योंका उपदेश घटित नहीं होता।' आगे इसका समाधान करते हुए तत्त्वार्थवातिककार कहते हैं कि 'वृत्तिकारका आप अभिप्राय नहीं समझे। आगे काल द्रव्यका निर्देश किया जानेवाला है उसकी अपेक्षा न कर यहाँ वृत्तिकारने पांच द्रव्य कहे हैं।'
इसी प्रकार एक प्रश्न इस अध्यायके 37वें सूत्रका विवरण लिखते समय भी उठाया गया है। वहाँ कहा गया है कि 'गृण यह संज्ञा अन्य सम्प्रदायके ग्रन्थों में उल्लिखित है, आहत मत में तो केवल द्रव्य और पर्यायका ही निर्देश किया है। अत: तत्त्व दो ही सिद्ध होते हैं और इनके आश्रयसे द्रव्यार्थिक और पर्याय ।यिक ये गय भी दो ही बनते हैं। यदि गुण नामका कोई पदार्थ है तो उसको विषय करनेवाला एक तीसरा नय अवश्य होना चाहिए। यतः तीसरा नय नहीं है, अतः गुण नामका कोई तीसरा पदार्थ सिद्ध नहीं होत- है और इसीलिए 'गणपर्ययववृद्व्यम्' यह सूत्र भी घटित नहीं होता।' आगे इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि यह बात नहीं है, क्योंकि अर्हत्प्रवचन हृदय आदि ग्रन्थों में गुणका उपदेश दिया गया है। और इसके आगे 'उपतं हि अर्हत्प्रवचने द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' यह वाक्य आया है।
तत्त्वार्थवातिकके ये दो उल्लेख हैं जिनसे अन्य वृत्ति तथा ग्रन्यान्त रकी सूचना मिलती है। प्रथम उल्लेखसे हम जानते हैं कि तत्त्वार्थवातिककारके सामने तत्वार्थसूत्रपर लिखी गयी कोई एक वृत्ति थी जिसमें 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' सूत्रका विवरण लिखते समय पांच द्रव्योंका विधान किया गया था और जिसका सामंजस्य तत्त्वार्थवातिककारने यहाँ बिठलाया है। तथा दुसरे उल्लेखसे इस बातका अनुमान किया जा सकता है कि तत्त्वार्थवातिककारके सामने एक दूसरा अर्हत्प्रवचनहृदय या अर्हत्प्रवचन नामका स्वतन्त्र ग्रन्थ अवश्य था जो न केवल सूत्रशैली में लिखा गया था अपितु उसमें 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' यह सूत्र भी मौजूद था और सम्भवतः उसे तत्त्वार्थवातिककार अति प्राचीन भी मानते रहे तभी तो प्रकृत में गुणके समर्थन में उन्होंने उसका उल्लेख किया है।
यह अर्हत्प्रवचनहृदय या अर्हत्प्रवचन क्या है यह प्रश्न बहुत गम्भीर है। इसका उल्लेख तत्त्वार्थः । भाष्यकार वाचक उमास्वातिने भी किया है। वे लिखते हैं कि मैं अहंद्वचनके एकदेशके संग्रहरूप और बहुत अर्थवाले तत्त्वार्थाधिगम नामके लघुप्रन्थका शिष्योंकी हितबुद्धिसे कथन करता हूँ। इसी प्रकार अमृतचन्द्र
1. देखो पं० सुखलालजी की तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावना। 2. वृत्तौ पञ्चत्ववचनात् षड्द्रव्योपदेशध्याषात इति चेत्, न, अभिप्रायापरिज्ञानात् । 3. 'तत्त्वार्थाधिगमाख्यं बह्वर्थ संग्रहं लघुग्रन्थम् । वक्ष्यामि शिष्यहितमिममहद्वचनकदेशस्य ॥22॥'
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