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सर्वार्थसिद्धि
है। साथ ही 42 वें सूत्रके भाष्यमें धर्म, अधर्म, आकाश और जीवके परिणामको अनादि कहा है। इस पर तत्त्वार्थवार्तिक में आपत्ति करते हुए कहा है ...-'अत्रान्ये धर्माधर्मकालाकाशेषु अनाविः परिणामः माविमान् जीवपुद्गलेषु वदन्ति तवयुक्तम् ।'
अर्थात् अन्य लोग धर्म, अधर्म, काल और आकाश में परिणामको अनादि कहते हैं तथा जीव और पुद्गलों में उसे सादि कहते हैं किन्तु उनका ऐसा कहना अयुक्त है।
इसी प्रकार अध्याय 1 सूत्र 15 व 21; अध्याय 2 सूत्र 7, 20 व 333; अध्याय 4 सूत्र 8; अध्याय 5 सूत्र 2-3, अध्याय 6 सूत्र 18 और अध्याय 8 सू० 6 के तत्त्वार्थवातिकके देखनेसे भी विदित होता है कि अकलंकदेवके सामने तत्त्वार्थभाष्य अवश्य था।
यद्यपि इस विषय में कुछ मतभेद है। डॉ० जगदीशचन्द्रजीने अनेकान्त वर्ष 3 किरण 4 में इस आशयका एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने बतलाया है कि अकलंकदेवके सामने उमास्वातिका तत्त्वार्थभाष्य उपस्थित था। किन्तु उनके इस मतको पं० जुगुलकिशोरजी मुख्तार स्वीकार नहीं करते। पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीका भी यही मत है।
हमारा विचार है कि वाचक उमास्वातिने तत्त्वार्थभाष्य में जो सूत्रपाठ स्वीकार किया है वह तत्त्वार्थभाष्य लिखनेके पूर्व अवस्थित था इस विषयका पोषक कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता । आचार्य पूज्यपादने और सिद्धसेनगणिने अपनी टीकाओंमें जगह-जगह सूत्रपाठ सम्बन्धी जिस मतभेदकी चर्चा की है उसका सम्बन्ध भी तत्त्वार्थभाष्य मान्य सूत्रपाठसे नहीं है। ऐसी अवस्थामें यह मानना कि भट्ट अकलंकदेवके सामने वाचक उमास्वातिका तत्त्वार्थभाष्य नहीं था, हमें शिथिल प्रतीत होता है। तत्त्वार्थसूत्रपर लिखी गयीं दिगम्बर और श्वेताम्बर समस्त टीकाओंके अवलोकनसे केवल हम इतना निश्चय कर सकते हैं कि जिस महान् आचार्यने तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की है उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र पर कोई भाष्य या वृत्ति ग्रन्थ नहीं लिखा था। तत्त्वार्थसूत्र में उत्तरकालमें सूत्रविषयक जो विविध मतभेद दिखाई देते हैं वे इसके प्रमाण हैं । यह स्पष्ट है कि आचार्य पूज्यपादके काल तक वे मतभेद बहुत ही स्वल्पमात्रामें रहे हैं। किन्तु मूल सूत्रपाठ सर्वार्थसिद्धि द्वारा दिगम्बर परम्परा मान्य हो जाने से दूसरी ओर इसकी बलवती प्रतिक्रिया हुई और मूल सूत्रपाठको तिलांजलि दे दी गयी। परिणाम स्वरूप सूत्रपाठके स्वरूपके विषय में न केवल मतभेद बढ़ने लगा अपितु स्वतन्त्र सूत्रपाठके स्थिर करनेका भी भाव जागृत हुआ। इन सारे घटनाक्रम व तथ्यों के आधारसे हमारा तो यही विचार पुष्ट होता है कि स्वयं वाचक उमास्वातिने अपने तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठको अन्तिम रूप दिया होगा और आगे यह पाठभेद सम्बन्धी मतभेद उग्र रूप धारण न करे, इसलिए उन्होंने ही उसपर अपना प्रसिद्ध तत्वार्थाधिगमभाष्य लिखा होगा। यह ठीक है कि वाचक उमास्वातिके पहले अन्य श्वेताम्बर आचार्योंने मूल तत्त्वार्थसूत्र में काट-छांट चाल कर दी थी और वाचक उमास्वातिको उसका वारसा मिला है। यदि पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर इस मतका प्रस्थापन करते हैं कि तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठ वाचक उमास्वातिके भी पर्व उपस्थित था तो यह कथन कुछ अंशमें सम्भव हो सकता है पर इससे तत्त्वार्थवातिककारके सामने तत्त्वार्थभाष्य उपस्थित था इस मतपर रंचमात्र भी आँच नहीं आती, क्योंकि तत्त्वार्थवातिकमें केवल तत्त्वार्थभाष्य मान्य सूत्रविषयक मतभेदोंका ही उल्लेख नहीं है, अपितु कुछ ऐसे मतोंका भी उल्लेख है जिनका सीधा सम्बन्ध तत्त्वार्थभाष्यसे है।
इस प्रकार इन प्रमाणोंके प्रकाशमें यह मान लेनेपर भी कि तत्त्वार्थभाष्य तत्त्वार्थवातिकके पहले कभी लिखा गया है, फिर भी वह कब लिखा गया है यह विचारणीय हो जाता है। इसका हमें कई दृष्टियोंसे
1. देखो अनेकान्त वर्ष 3 किरण 4, 11 व 121 2. देखो पं० कैलाशचन्द्रजीका तत्त्वार्थसूत्र प्रस्तावना पृ०9 आदि। 3. देखी सर्वार्थ सिद्धि अ० 1 सू० 16 व अ. 2 सू० 53 तथा सिद्धसेनकी टीका अ० 1 सू० व अ० 5सू० 3 आदि। 4. देखो चालू प्रस्तावनाका सूत्रपाठोंमें मतभेद' प्रकरण ।
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