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सर्वार्थसिद्धि
रूपसे ही विचार होना चाहिए कि सिद्ध सेनगणिके सामने तत्त्वार्थभाध्यपर अपनी टीका लिखते समय तत्त्वार्थवार्तिक था या नहीं और तत्काल हमें प्रसंगोचित इसी बातका विचार करना है ।
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इसमें सन्देह नहीं कि सिद्धसेन्गणि बहुत विद्वान् थे। उन्होंने अपनी टीका में तत्वार्थ सूत्र के अनेक पाठान्तरों, मत-मतान्तरों, ग्रन्थों, आचायों और प्रमाणोंका उल्लेख किया है, जिनसे अनेक ऐतिहासिक तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है । इस प्रसंगसे वे भट्ट अकलंक देवके सिद्धिविनिश्चय और तत्त्वार्थ वार्तिकको भी नहीं भूले हैं। अध्याय 1 सूत्र 3 की टीका में सिद्धिविनिश्चयका उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं
' एवं कार्यकारण संबन्धः समजाय परिणामनिमित्तनियतका विरूपः सिद्धिविनिश्चयसृष्टिपरीक्षातो योजनीयो विशेषार्थिना दूषणद्वारेणेति ।'
भट्ट अकलंक देवके उपलब्ध साहित्य में सिद्धिविनिश्चय अन्यतम दर्शनप्रभावक ग्रन्थ है और उसमें सृष्टिपरीक्षा प्रकरण भी उपलब्ध होता है। इससे निश्चित होता है कि यह उल्लेख इसी सिद्धिविनिश्चयका है। हमने तत्त्वार्थवार्तिक के साथ भी सिद्धिसेनगणिकी उक्त टीकाका तुलनात्मक अध्ययन किया है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सिद्धिसेनगणिके सामने तस्वार्थभाष्यपर अपनी प्रसिद्ध टीका लिखते समय तत्त्वार्थपातिक अवश्य था। तुलनाके लिए देखिए-
'अर्थवशाद् विभक्तिपरिणामो भवति । तद्यथा— उच्चानि देवदत्तस्य गृहाण्यामन्त्रयस्वनम् । देववत्तमिति गम्यते ।' -तस्वार्थातिक अ० 1 सू० 7
'अर्थवशाश्च विभक्तिपरिणामः उच्चगृहाणि देवदत्तस्यामन्त्रयत्वनमिति ।' - सि० डी० उत्पानिका इलोक 6 को टीका
इसी प्रकार समानता सूचक और भी वाक्य उपलब्ध होते हैं जिनका निर्देश पं० परमानन्दजी शास्त्रीने अनेकान्त वर्ष 3 किरण 11 में सिद्धसेन के सामने सर्वार्थसिद्धि और राजनातिक लेख में किया है । इन समानता सूचक वाक्योंके अतिरिक्त सिद्धसेनगणकी टीका में कुछ ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं जिनके आधारसे उसकी स्थिति तस्यार्थवातिकके बाद स्थिर होने में विशेष सहायता मिलती है यथा-तत्त्वार्थवार्तिक में नरक के कारणोंकी व्याख्या करते हुए यह वाक्य आता है
'बारम्भाः परिग्रहा यस्य स बह्वारम्भपरिग्रहः
इसी बातको सिद्ध सेनगणि मतभेदके साथ इन शब्दों में व्यक्त करते हैं
'अपरे ब्रुवते --- बह्वारम्भाः परिग्रहा यस्यासौ बह्वारम्भपरिग्रहः ।
इस पदकी व्याख्या सर्वार्थसिद्धि में भी उपलब्ध होती है। इसलिए इसपर से यह कहा जा सकता है। कि सिद्धसेन गणिने यह मतभेद सर्वार्थसिद्धिको लक्ष्य में रखकर व्यक्त किया होगा । किन्तु सर्वार्थसिद्धि में उक्त पदके किये गये विग्रहसे पूर्वोक्त विग्रहमें मौलिक अन्तर है। सर्वार्थसिद्धि में यह विग्रह इस प्रकार उपलब्ध होता है-
'बहव आरम्भपरिग्रहा यस्य स बद्धारम्भपरिग्रहः ।
किन्तु सिद्धसेनमणिकी टीका इस विषय में तत्त्वार्थवातिकका अनुसरण करती है, सर्वार्थसिद्धिका नहीं। अतएव इसपरसे यह माननेके लिए वाध्य होना पड़ता है कि सिद्धसेनगणिको यहाँपर 'अपरे पदसे तत्त्वार्थवार्तिककार अभिप्रेत रहे हैं।
सिद्धसेन गणिको टीका में ऐसे और भी पाठ' या मतभेदके उल्लेख उपलब्ध होते हैं जो तस्वार्थवार्तिककी ओर संकेत करते हैं ।
इससे इस बातके स्पष्ट होते हुए भी कि सिद्ध गणिके सामने तत्त्वार्थमयपर अपनी टीका लिखते
1. इसके लिए प्रथम सूत्रकी उत्थानिका व अध्याय 6 सूत्र 16, 17, 18 आदि देखिए ।
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