________________
38
सर्वार्थसिद्धि
इन उल्लेखोंको उसकी प्रामाणिकताकी कसौटी नहीं माना जा सकता। वस्तुतः ये परिस्थितिवश स्वीकार किए गये हैं। प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी इस स्थितिसे अनभिज्ञ हों ऐसी बात नहीं है। वे जानते हुए भी किसी कारणवश इस स्थितिको दृष्टिओझल करनेके यत्न में हैं और यह घोषित करनेका प्रयत्न करते हैं कि श्वेताम्बर अंगश्रुतमें अचेलकत्व समर्थक वाक्य ही भगवान महावीरकी परम्पराके पूरे प्रतिनिधित्वके सूचक हैं ।।।
यह सत्य है कि श्रमण परम्परा में अचेलकत्व और सचेलकत्व दोनोंको स्थान रहा है और यह भी सत्य है कि अचेलकत्व उत्सर्ग धर्म और सचेलकत्व अपवाद धर्म माना गया है। हमें दिगम्बर परम्पराके साहित्यमें भी ऐसे उल्लेख उपलब्ध होते हैं जिससे इस तथ्यकी पुष्टि होती है । किन्तु वहाँ अचेलकत्वसे तात्पर्य मुनिधर्मसे है और सचेलकत्वसे तात्पर्य गृहस्थधर्म या श्रावकधर्म से है। श्रावकधर्म मुनिधर्मका अपवादमार्ग है । जहाँ गृहस्थ सब प्रकारकी हिंसा, असत्य, स्तेय और अब्रह्मका परिहार कर मुनि होता है वहाँ उसे सब प्रकारके परिग्रहका परिहार करना भी आवश्यक होता है। श्वेताम्बर अंगश्रुत और प्रकीर्णक साहित्यमें वस्त्र और पात्रके स्वीकार करनेको भी संयमका साधन माना गया है, किन्तु संयमका साधन वह हो सकता है जो शरीर की सुविधा के लिए आवश्यक न होकर मात्र प्राणिपीड़ा परिहारके लिए स्वीकार किया जाता है । किन्तु वस्त्र और पात्र प्राणिपीड़ा परिहारके लिए स्वीकार किए जाते हैं यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतीत होता है, क्योंकि इन साधनोंसे उक्त कार्य दृष्टिगोचर नहीं होता। दूसरे इन्हें उक्त कार्यका अनिवार्य अंग मानकर चलने पर नग्नता और पाणिपात्रत्वका विधान करना नहीं बन सकता है। किन्तु हम देखते हैं कि श्वेताम्बर आगम में अचेलत्व और पाणिपात्रत्वका भी विधान है, अत: वस्त्र और पात्र उन्हीं के मतसे संयमके उपकरण नहीं हो सकते। एक चर्चा उत्सर्ग और अपवादलिंगकी की जाती है। यह कहा जाता कि नग्नता और पाणिपात्रत्व उत्सर्ग लिंग है, किन्तु इसका अपवाद भी होना चाहिए और अपवादरूप में ही वस्त्र और पात्र स्वीकार किये जाते हैं। हम मानते हैं कि प्रत्येक उत्सर्गका अपवाद होता है और यह व्यवस्था श्रमण परम्पराने भी स्वीकार की है। तभी तो वह मुनिधर्म और गृहस्थधर्म इन इन दो भेदों का निर्देश करती है। मुनिधर्म उत्सर्ग लिंग है और गृहस्थधर्म उसका अपवाद है। इसलिए वस्त्र और पात्रका स्वीकार मुनि-आचारका अंग नहीं बन सकता है । भले ही दुर्भिक्षके समय ऐसी परिस्थिति रही है जिससे उस समय उत्तर भारत में जो साधु रह गये थे उन्हें वस्त्र और पात्र स्वीकार करने पड़े थे। इतना ही नहीं, उन्हें कारणवश दण्ड भी स्वीकार करना पड़ा था । किन्तु इन्हें साधुका चिह्न मान लेना मुनि-मार्गके विरुद्ध है। यह हम पहले ही बतला आये हैं कि जो कमजोरीवश वस्त्रादिकको स्वीकार करते हैं वे श्रावक होते हैं । उनके परिणाम मुनिधर्म के अनुकूल नहीं हो सकते।
इस स्थितिके होते हुए भी आग्रहवश श्वेताम्बर अंगश्रुतमें वस्त्र, पात्रादिको साधुके अंग मानकर उनके जिनकल्प और स्थविरकल्प ये दो भेद कर दिए गए हैं। इस कारण प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजीको भी उसकी पुष्टि के लिए बाध्य होना पड़ा है । अन्यथा उन्हें जिन तथ्यों के निर्देश में साम्प्रदायिकताकी गन्ध आती है उन्हें वे न केवल तात्त्विक दृष्टिसे स्वीकार करते, अपितु वे परिस्थितिवश श्रमण परम्परामें हुई एक बहुत बड़ी गलतीका परिहारकर आगेका पथ प्रशस्त करने में सहायक होते ।
यह हम पहले संकेत कर आये हैं कि पण्डितजीने सर्वार्थ सिद्धि मेंसे ऐसी चार बातें चुनी हैं जिनका निर्देश वे साम्प्रदायिक कोटिका मानते हैं। सर्वार्थसिद्धि में निर्णायकरूपसे काल तत्त्वका विधान किया गया है जब कि तत्त्वार्थभाष्य में मतविशेषके रूप में उसका उल्लेख है। सर्वार्थसिद्धि केवलिकवलाहार और स्त्री-मुक्ति का निषेधकर नाग्न्यको स्वीकार करती है जब कि तत्त्वार्थभाष्य परीषहोंके प्रसंगसे नाग्न्यको स्वीकार कर वस्त्र, पात्र और स्त्री तीर्थंकरका भी विधान करता है। सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यकी यह स्थिति है जिस कारण पण्डितजीने सर्वार्थसिद्धि के विषय में अपना उक्त प्रकारका मत बनाया है और इस आधारसे तत्त्वार्थभाष्यको सर्वार्थसिद्धिसे प्राचीन सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। इस विषय में पण्डितजीका अभिमत है कि
1. प्रज्ञाचक्ष पं० सुखलालजीके लेखों का भाव । देखो, तत्त्वार्थसत्र प्रस्तावना पृ० 291
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org