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प्रस्तावना
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पादका व्याकरणके ऊपर लिखा गया जैनेन्द्र व्याकरण' प्रसिद्ध है। उन्होंने न्यायके ऊपर भी ग्रन्थरचना की थी यह भी धवला टीकाके उल्लेखसे विदित होता है। ऐसी अवस्थामें उनके द्वारा रची गपी सर्वार्थसिद्धि में इन विषयोंका विशद और स्पष्ट विवेचन होना स्वाभाविक है। किन्तु वाचक उमास्वातिकी स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है । वे मुख्यतया आगमिक विद्वान् थे। उनकी अब तक जितनी रचनाएँ उपलब्ध हुई हैं वे श्वेताम्बर आगम परिपाटीको लिए हुए ही हैं। रही कारण है कि उन्होंने तत्वार्थभाष्य में व्याकरण और दर्शन विषयका विशेष ऊहापोह नहीं किया है।
उनका तीसरा आक्षेप साम्प्रदायिकताका है। पण्डितजीने सर्वार्थसिद्धि में प्रतिपादित ऐसे चार विषय चुने हैं जिनमें उन्हें साम्प्रदायिकता की गन्ध आती है। वे लिखते हैं कि 'कालतत्त्व' केवलिकवलाहार, अचेलकत्व और स्त्रीमोक्ष जैसे विषयों के तीव्र मतभेदका रूप धारण करनेके बाद और इन बातोंपर साम्प्रदायिक आग्रह बंध जानेके बाद ही सर्वार्थ सिद्धि लिखी गयी है, जब कि भाष्यमें साम्प्रदायिक अभिनिवेशका यह तत्त्व दिखाई नहीं देता।
प्रकृतमें इस विषयपर विचार करनेके पहले पण्डितजी ऐसा लिखनेका साहस क्यों करते हैं इस बात का विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है।
भगवान् महावीर स्वामी के मुक्तिलाभ करने पर जो पाँच श्रुतकेवली हुए हैं उनमें अन्तिम भद्रबाहु थे। इनके समय में उत्तर भारत में बारह वर्षका दुभिक्ष पड़ा था। इससे संघसहित भद्रबाहु दक्षिणकी ओर विहार कर गये थे। इस दुभिक्षका उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा भी करती है और साधुसंघके समुद्र के समीप जाकर बिखर जानेकी बात स्वीकार करती है। उस समय भद्र बाहुके मुख्य शिष्य मौर्य चन्द्रगुप्त भी उनके साथ गये थे और वहाँ पहुँचते-पहुँचते आयु क्षीण हो जानेसे भद्रबाहुने वहीं समाधि ले ली थी। किन्तु कुछ साधु श्रावकोंके विशेष अनुरोधवश पटना ही रह गये थे और कालान्तर में परिस्थितिवश उन्होंने वस्त्र स्वीकार कर लिया था, जिससे जैन परम्परा में श्वेताम्बर संघकी उत्पत्ति मानी जाती है। जब बारह वर्षका दुर्भिक्ष समाप्त हुआ तब कुछ साधु पुन: पटना लौट आये। श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार 'भद्रबाहु उस समय नेपालकी तराई में थे और बारह वर्षकी विशेष तपश्चर्या करने में लगे हुए थे । साधुसंघने भद्रबाहुको पटना बुलाया, किन्तु वे नहीं आये जिससे उन्हें संघबाह्य करनेकी धमकी दी गयी और किसी प्रकार उन्हें शिष्य समुदायको पढ़ानेके लिए राजी कर लिया गया। स्थूलभद्रने अंगज्ञान उन्हींसे प्राप्त किया है। यदि श्वेताम्बर सम्प्रदायके इस कथनको सत्य मानकर चलें तब भी श्वेताम्बर सम्प्रदायका अपनी परम्पराको स्थूलभद्रसे स्वीकार करना और पटना वाचनामें भद्रबाहुका सम्मिलित न होना ये दो वातें ऐसी हैं जो उस समय जैनसंघ में हुए किसी बड़े भारी विस्फोटका संकेत करती हैं। स्पष्ट है कि उस समयकी वाचनाको अखिल जैनसंघका प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं था और कालान्तर में जो अंगसाहित्य संकलित और लिपिबद्ध हुआ है वह सवस्त्रसाधुको जैन परम्परा में प्रतिष्ठित करनेकी दृष्टि से ही हुआ है। इस समय जो श्वेताम्बर अंग साहित्य उपलब्ध है वह लगभग भगवान महावीर के मोक्ष-गमनके एक हजार वर्षके बादका ही संकलन है । सोचनेकी बात है कि जब भद्रबाहु के काल में ही प्रथम वाचना हुई थी तब उसे उसी समय पुस्तकारूढ़ करके उसकी रक्षा क्यों नहीं की गयी? घटनाक्रमसे विदित होता है कि उस समय श्वेताम्बर संघके भीतर ही तीव्र मतभेद रहा होगा और एक दल यह कहता होगा कि संघभेदकी स्थिति में भी अंगसाहित्यमें परिवर्तन करना इष्ट नहीं है। बहत सम्भव है कि यदि उस समय श्वेताम्बर अंग-साहित्य संकलित होकर पुस्तकारूढ़ किया जाता तो उसका वर्तमान में रूप ही कुछ दूसरा होता।
यद्यपि श्वेताम्बर अंगसाहित्यमें ऐसे भी उल्लेख दृष्टिगोचर होते हैं जो नग्नताके समर्थक हैं। किन्तु
1. सचेल दलके भीतर तीव्र मतभेदकी बात प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी भी स्वीकार करते हैं । वे लिखते हैं... मथुराके बाद बलभीमें पुनः श्रुतसंस्कार हुआ जिसमें स्थविर या सचेल दलका रहा सहा मतभेद भी नाम शेष हो गया।' देखो तत्त्वार्थसूत्र प्रस्तावना पृ० 30 ।
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