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प्रकार उल्लिखित है
प्रस्तावना
कालच । सर्वा० ।
काल इवेत्येके । त० भा० ।
इस द्वारा कालको द्रव्यरूप से स्वीकार किया गया है। किन्तु तस्वार्थ भाव्यकार ऐसा करते हुए भी अन्य आचार्यों के मतसे कालको द्रव्यरूपसे स्वीकार करते हैं, स्वयं नहीं । यही कारण है कि उन्होंने तत्त्वार्थमाध्यमे जहाँ जहाँ द्रव्योंका उल्लेख किया है वहाँ वहाँ पाँच अस्तिकायकार ही उल्लेख किया है और लोकको पाँच अस्तिकायात्क बतलाया है । श्वेताम्बर आगम साहित्य में छह द्रव्योंका निर्देश किया है अवश्य और एक स्थानपर तो तस्वार्थभाव्यकार भी छह द्रव्योंका उल्लेख करते हैं, परन्तु इससे वे कालको प्ररूप मानते ही हैं यह नहीं कहा जा सकता । कारण यह है कि श्वेताम्बर आगम साहित्यमें जहाँ भी छह द्रव्योंका नामनिर्देश किया है वहाँ कालद्रव्य के लिए अद्धासमय' शब्द प्रयुक्त हुआ है 'काल' शब्द नहीं और अद्धासमय शब्दका अर्थ यहाँ पर्याय ही लिया गया है, प्रदेशात्मक द्रव्य नहीं। तस्वत्यभाष्यकार ने भी इसी परिपाटीका निर्वाह किया है। उन्होंने तत्त्वार्थसूत्रके जिन सूत्रों में 'काल' शब्द आया है वहाँ तो उनकी व्याख्या करते हुए 'काल' शब्दका ही उपयोग किया है किन्तु जिन सूत्रोंमें 'काल' शब्द नहीं आया है और वहाँ 'काल'का उल्लेख करना उन्होंने आवश्यक समझा तो 'काल' शब्दका प्रयोग न कर 'अद्धा समय' शब्दका ही प्रयोग किया है।
तत्त्वार्थभाष्य और उस मान्य सूत्रपाठकी ये दो स्थितियाँ है जो हमें इस निष्कर्षपर पहुँचाने में सहायता करती हैं कि प्रारम्भ में तो 'कालइच' इस प्रकार के सूत्रका ही निर्माण हुआ होगा, किन्तु बाद में वह बदल कर 'कामश्चेत्येके' यह रूप ले लेता है।
2. शैली – यहाँ प्रसंगसे सूत्र रचनाकी शैलीके विषय में भी दो शब्द कहने हैं। सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठको देखते हुए तो यह कहा जा सकता है कि परिशेषन्यायसे उसमें कोई भी बात नहीं कही गयी है। वह सीधी सूत्र और उनके पदोंकी व्याख्या करते हुए आगे बढ़ती है। इसके विपरीत दूसरी ओर जब हम तत्त्वार्थभाष्यको देखते हैं तो उसमें हमें कोई एक निश्चित शैलीके दर्शन नहीं होते हैं। कहीं वे परिशेषन्यायको स्वीकार करते हैं और कहीं नहीं । जैसे 'शेषाणां संमूर्छनम्' और 'अशुभः पापस्य' ये दो सूत्र सूत्र परिशेषन्यायसे नहीं कहे जाने चाहिए थे फिर भी उन्होंने इनको स्वतन्त्र सूत्र मान लिया है और 'शेषास्त्रिवेदा:' तथा 'अतोऽन्यत्पापम्' इनको छोड़ दिया। ऐसी अवस्था में यह कहना कि आचार्य पूज्यपादने तत्त्वार्थ भाष्यको देखकर इन्हें स्वतन्त्र सूत्रों का रूप दिया है युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । वस्तुतः तत्त्वार्थभाष्यकार अपनेको ऐसी स्थितिमें नहीं रख सके हैं जिससे उनके विषय में कोई निश्चित रेखा खींची जा सके। एक दूसरे अध्याय के शरीर प्रकरणको ही लीजिए। उसमें वैक्रियिक शरीर की उत्पत्तिके दोनों प्रकार तो सूत्रों में दिखा दिये, किन्तु जब तेजस शरीरका प्रसंग आया तो उसकी उत्पत्तिके प्रकारको सूत्र में दिखलाना उन्होंने आवश्यक नहीं समझा। क्या इस प्रकरणको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यह असंगति मूलसूत्रकारको रुचिकर प्रतीत रही होगी । तत्त्वार्थ भाष्यके अन्य सूत्रों में भी ऐसी असंगतियाँ दीख पड़ती हैं। चौथे अध्याय में लौकान्तिक देवोंका प्रतिपादक सूत्र आता है उसमें लोकान्तिक देवोंके भेदका प्रतिपादन करते समय नौ भेद दरशाये हैं, किन्तु तस्वार्थभाष्य में 'एते सारस्वतादयोऽष्टविधा देवा' इन शब्दों द्वारा वे आठ ही रह गये हैं।
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ये भी ऐसे उदाहरण हैं जो तस्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठकी स्थिति में सन्देह उत्पन्न करते हैं और यह मानने के लिए बाध्य करते हैं कि सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ पुराना है और उसमें ऐच्छिक परिवर्तन कर तत्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठकी रचना की गयी है।
3. पौर्वापर्य विचार - पिछले प्रकरणसे यद्यपि सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यकी स्थिति बहुत कुछ
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1. सर्व पञ्चत्वमस्तिकायावरोधात् । अ० 1, सू० 35। पञ्चास्तिकायो लोकः । अ० 3, सू0 6 1 पञ्चास्तिकायात्मकम् । अ० 9, सू० 7 1 2 षट्त्वं षट् द्रव्यावरोधात् । अ० 1, सू० 35। 3. अ० 5 सू० 11
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