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सर्वार्थसिद्धि
यहाँ सर्वप्रथम यह विचार करना है कि क्या उक्त सूत्रके आधारसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठ मूल है और उसे सुधार कर या बढ़ाकर सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ निर्मित हुआ है। यह तो स्पष्ट है कि किसी एक पाठमें परिवर्तन किया गया है पर वह परिवर्तन किस पाठ में किया जाना सम्भव है यही विचारणीय है। जैसा कि हम देखते हैं कि दिगम्बर परम्पराके अनुसार सर्वत्र कल्पोपपन्न देवोंके भेद बारह और कल्प सोलह गिनाये गये हैं। कल्प कल्पोपपन्न देवोंके आवासस्थानकी विशेष संज्ञा है। यदि कल्पोपपन्न देव बारह प्रकारके होकर भी उनके आवासस्थान सोलह प्रकारके माने गये हैं तो इसमें बाधाकी कौन-सी बात है । और इस आधारसे यह कैसे कहा जा सकता है कि सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठमें सुधार किया गया है। यदि सुधार करना ही इष्ट होता तो अध्याय 4 सूत्र तीन में भी बारह' के स्थान में 'सोलह किया जा सकता था। प्रत्युत इसपरसे तो यही कहा जा सकता है कि पूज्यपाद स्वामीको जैसा पाठ मिला एकमात्र उसीकी उन्होंने यथावत् रक्षा की है। दूसरी ओर जब हम तत्त्वार्थभाष्यमान्य पाठकी ओर ध्यान देते हैं तब भी इस सूत्रके आधारसे किसी निष्कर्ष पर पहुँचना सम्भव प्रतीत नहीं होता। कारण कि वहाँ भी इस सूत्र में घटाबढ़ीका ऐसा प्रबल कारण नहीं मिलता जिससे यह कहा जा सके कि उक्त सूत्र में परिवर्तन किया गया है। दोनों ही परम्पराओंके आचार्य अपनी-अपनी परम्पराकी मान्यतापर दृढ़ हैं, इसलिए इस आधारसे यही कहा जा सकता है कि जिसने उत्तरकाल में रचना की होगी उसी के द्वारा सूत्रों में सुधार करना सम्भव है। दूसरे, सानत्कुमार आदिमें प्रविचारका प्रतिपादक सूत्र है। दोनों में इस सूत्रकी स्थिति इस प्रकार है--
शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः। सर्वा० ।
शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः द्वयोर्द्वयोः। त० भा० । हम देखते हैं कि तत्त्वार्थभाष्यके अनुसार इस सूत्र में 'द्वयोर्द्वयोः' इतना पद अधिक है जब कि सर्वार्थसिद्धि में इसका सर्वथा अभाव है। इसके पहले दोनों ही परम्पराओं में 'कायप्रवीचाराः आ ऐशानात' यह सूत्र आता है। इस द्वारा सौधर्म और ऐशान कल्प तक प्रवीचारका विधान किया गया है। आगे सर्वार्थसिद्धि के अनुसार चौदह और तत्त्वार्थभाष्यके अनुसार दस कल्प शेष रहते हैं जिनमें यह सूत्र प्रवीचारका विधान करता है। प्रकृत में देखना यह है कि सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्य इन दोनों में इसकी संगति किस प्रकार बिठलायी गयी है। यह तो स्पष्ट है कि सवार्थसिद्धि में 'द्वयोर्द्वयोः' पद न होनेसे आचार्य पूज्यपादको इसकी व्याख्या करने में कोई कठिनाई नहीं गयी। उन्होंने तो आर्षके अनुसार इसकी व्याख्या करके छुट्टी पा ली। किन्तु तत्त्वार्थभाष्यकारकी स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। उनके सामने 'द्वयोर्द्वयोः' पदके कारण इसकी व्याख्या करते समय यह समस्या रही है कि प्रवीचारके विषय चार और कल्प दस होनेसे इसकी संगति कैसे बिठलायी जाय। फलस्वरूप उन्हें अन्तके चार कल्पोंको दो मानकर इस सूत्रकी व्याख्या करने के लिए बाध्य होना पड़ा है। उन्होंने किसी प्रकार व्याख्या करनेका तो प्रयत्न किया पर इससे जो असंगति उत्पन्न होती है वह कथमपि दूर नहीं की जा सकी है। इससे मालूम पड़ता है कि स्वयं उन्होंने तत्त्वार्थभाष्यके आश्रयसे, इस सूत्रको स्पष्ट करनेकी मनसासे सूत्र में यह पद बढ़ाया है। यहाँ उत्तर विकल्पकी अधिक सम्भावना है।
हमें ऐसे एक दो स्थल और मिले हैं जिनमें तत्त्वार्थभाष्यके आश्रयसे सूत्रोंकी संगति बिठलायी गयी है। उदाहरण स्वरूप 'यथोक्तनिमित्तः' पद लीजिए। यह प्रथम अध्यायके 22वें सूत्र में आया है। इसके पहले एक सूत्रके अन्तरसे वे 'द्विविधोऽवधिः' सूत्र कह आये हैं और इन भेदोका स्पष्टीकरण इस सूत्रके माध्यमें किया है। प्रकृतमें 'ययोक्तनिमित्तः' पदमें आये हुए 'यथोक्त' पद द्वारा उनका संकेत इसी भाष्यकी ओर है। वे इस पद द्वारा कहना चाहते हैं कि दूसरे जिस निमित्तका संकेत हमने 'द्विविषोऽवधि:' सूत्रके भाष्यमें किया है उस निमित्तसे शेष जीवोंके छह प्रकारका अवधिज्ञान होता है। किन्तु उस अवस्था में जब कि सूत्र-रचना पहले हो चुकी थी और भाष्य बादमें लिखा गया है भाष्यकारकी स्थिति सन्देहजनक हो जाती है। और मानना पड़ता है कि तत्त्वार्थभाष्यकार वाचक उमास्वातिने प्राचीन सूत्रपाठ में सुधार करनेका प्रयत्न किया है।
तीसरा कालके अस्तित्वको स्वीकार करनेवाला सूत्र है। यह सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यमें इस
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