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प्रस्तावना 33 परीषह वेदनीय कर्मके उदयमें होते हैं । वेदनीय कर्मका उदय जिनके भी होता है, इसलिए, इनका सद्भाव वहाँ तक कहा है ।
इस प्रकार अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में सूत्रकारने जो परीषहाँका सद्भाव कहा है उसमें उनकी दृष्टि कारणको ध्यान में रखकर विवेचन करनेकी ही रही है और इसीलिए सर्वार्थसिद्धिकार आचार्य पूज्यपादने पहले सूत्रकारकी दृष्टिसे 'एकावर जिने' इस सूषका व्याख्यान किया है। अनन्तर जब उन्होंने देखा कि कुछ अन्य विद्वान् अन्य साधारण मनुष्योंके समान केवली के कारणपरक परीषहोंके उल्लेखका विपर्यास करके भूख-प्यास आदि बाधाओंका ही प्रतिपादन करने लगे हैं तो उन्होंने यह बतानेके लिए कि केवली के कार्यरूपमें ग्यारह परीषह नहीं होते 'न सम्सि' पदका अध्याहार कर उस सूत्र से दूसरा अर्थ फलित किया है। इसमें न तो उनकी साम्प्रदायिक दृष्टि रही है और न ही उन्होंने तोड़-मरोड़कर उसका अर्थ किया है। साम्प्र दायिक दृष्टि तो उनकी है जो उसे इस दृष्टिकोण से देखते हैं। आचार्यों में मतभेद हुए हैं और हैं पर सब मतभेदोंको साम्प्रदायिक दृष्टिका सेहरा बाँधना कहाँ तक उचित है यह समझने और अनुभव करनेकी बात है। आचार्य पूज्यपाद यदि साम्प्रदायिक दृष्टिकोणके होते तो वे ऐसा प्रयत्न न कर सूत्रका ही कायाकल्प कर सकते थे । किन्तु उन्होंने अपनी स्थितिको बिल्कुल स्पष्ट रखा है । तत्त्वतः देखा जाय तो एक मात्र यही उदाहरण उनकी साहित्यिक प्रामाणिकता की कसौटी बन सकता है यह अर्थान्तरन्यासका दूसरा उदाहरण है । इसके सिवा अर्थान्तरन्यासके एक-दो उदाहरण और भी उपस्थित किये जा सकते हैं पर विशेष प्रयोजन न होनेसे उनका यहाँ हमने निर्देश नहीं किया है।
इस प्रकार इन चार उदाहरणोंसे इस बातका सहज ही पता लग जाता है कि आचार्य पूज्यपादने मूल सूत्रपाठ और पाठान्तरोंकी रक्षाका कितना अधिक ख्याल रखा है ।
4. सर्वार्थसिद्धि और तस्वार्थ भाष्य - ऐसा होते हुए भी आचार्य पूज्यपादके ऊपर यह आक्षेप किया जाता है कि उन्होंने उपलब्ध हुए सूत्रपाठ में सुधार और वृद्धि कर सर्वार्थसिद्धिकी रचना की है । सर्वार्थसिद्धि किस कालकी रचना है और तत्वार्थभाध्य किस कालका है यह तो हम आगे चलकर देखेंगे। वहाँ केवल तुलनात्मक दृष्टि से इन दोनोंके अन्तःस्वरूपका पर्यालोचन करना है ।
1. सूत्रपाठ – सर्व प्रथम हम सूत्रपाठको लेते हैं। सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठसे तस्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठ में शब्दों के हेरफेरसे या सूत्रों के घटाने-बढ़ानेसे छोटे-मोटे अन्तर तो पर्याप्त हुए हैं किन्तु उन सबका ऊहापोह यहाँ नहीं करना है। जिनमें मौलिक अन्तर हुआ है ऐसे सूत्र तीन हैं। प्रथम स्वर्गकी संख्याका प्रतिपादक सूत्र, दूसरा सानत्कुमार आदि में प्रवीचारका प्रतिपादक सूत्र और तीसरा कालको स्वतन्त्र द्रव्य नाननेवाला सूत्र ।
स्वर्गके प्रतिपादक सूत्र में मौलिक अन्तर यह हुआ है कि सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ में 16 कल्योंकी परिगणना की गयी है और तत्वार्थमध्यमान्य सूत्रपाठ में 12 कल्पों की परिगणना की गयी है। इस पर आक्षेप यह किया जाता है कि जब सर्वार्थसिद्धिमग्य सूत्रपाठ में कल्पोपपन्न देवोंके भेद' बारह बतलाये हैं और नामोंकी परिगणना करते समय वे सोलह परिगणित किये गये हैं तब यह माननेके लिए पर्याप्त आधार हो जाता है कि या तो आचार्य पूज्यपादने या इनके पूर्ववर्ती अन्य किसी आचार्यने इस सूत्र को घटा-बढ़ाकर उसे वर्तमान रूप दिया है जब कि तत्त्वायंभाव्यमान्य सूत्रपाठकी स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। इसलिए बहुत सम्भव है कि तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठ मूल हो और उसमें सुधार कर उत्तरकाल में सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ निर्मित हुमा हो" ।"
1. देखो पं० सुखलालजीके तत्त्वार्थसूत्रकी भूमिका पृ० 84, 85 2 देखो दो सूत्रपाठ प्रकरण, परिशिष्ट और उसके टिप्पण 3. देखो अ० 3 सू० 2 1 4. इन आक्षेपके लिए देखो पं० सुखलालजीका तत्त्वार्थसूत्र प्रस्तावना 73 से 89 1
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