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कारणकी दृष्टिसे । परोषहोंका कार्य क्या है और उनके कारण क्या हैं इस विषयका साङ्गोपाङ्ग ऊहापोह शास्त्रों में किया है। परीवह तथा उनके जयका अर्थ है- बाधा के कारण उपस्थित होनेपर उनमें जाते हुए अपने चित्तको रोकना तथा स्वाध्याय ध्यान आदि आवश्यक कार्योंमें लगे रहना परीवह और उनके जयके इस स्वरूपको ध्यान में रखकर विचार करने पर ज्ञात होता है कि एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान ही ऐसा है जिसमें बाधा के कारण उपस्थित होनेपर उनमें चित्त जाता है और उनसे चित्तवृत्तिको रोकने के लिए यह जीव उद्यमशील होता है। किन्तु आगे के गुणस्थानों की स्थिति इससे भिन्न है वहाँ वाह्य कारणोंके रहनेपर भी उनमें चित्तवृत्तिका रंचमात्र भी प्रवेश नहीं होता। इतना ही नहीं, कुछ आगे चलकर तो यह स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि जहाँ न तो बाह्य कारण ही उपस्थित होते हैं और न चित्तवृत्ति ही शेष रहती है। इसलिए इन गुणस्थानों में केवल अन्तरंग कारणोंको ध्यान में रखकर ही परीषहोंका निर्देश किया गया है। कारण भी दो प्रकारके होते हैं एक बाह्य कारण और दूसरे अन्तरङ्ग कारण बाह्य कारणोंके उपस्थित होने का तो कोई नियम नहीं है । किन्हीं को उनकी प्राप्ति सम्भव भी है और किन्हीं को नहीं भी । परन्तु अन्तरङ्ग कारण सबके पाये जाते हैं। यही कारण है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओंके ग्रन्थों परषहोंके कारणोंका विचार करते समय मुख्यरूपसे अन्तरङ्ग कारणोंका ही निर्देश किया है इसीसे तत्त्वार्थसूत्र में वे अन्तरंग कारण ज्ञानावरण, वेदनीय, दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय और अन्तरायके उदयरूप कहे हैं, अन्यरूप नहीं । कुल परीवह बाईस हैं। इनमेंसे प्रशा और अज्ञान परीषह ज्ञानावरणके उदय में होते हैं। ज्ञानावरणका उदय क्षीणमोह गुणस्थान तक होता है, इसलिए इनका सद्भाव क्षीणमोह गुणस्थान तक कहा है । किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं कि प्रज्ञा और अज्ञानके निमित्तसे जो विकल्प प्रमत्तसंगत जीवके हो सकता है वह अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में भी होता है । आगेके गुणस्थानों में इस प्रकार के विकल्पके न होनेपर भी वहाँ केवल ज्ञानावरणका उदय पाया जाता है, इसलिए वहाँ इन परषहोंका सद्भाव कहा है।
अदर्शनपरीयह दर्शन मोहनीयके उदयमें और अलाभ परीषह अन्तरायके उदय में होते हैं। यह बात किसी भी कर्मशास्त्र के अभ्यासीसे छिपी हुई नहीं है कि दर्शनमोहनीयका उदय अधिक से अधिक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही होता है, इसलिए अदर्शन परीषहका सद्भाव अधिक से अधिक इसी गुणस्थान तक कहा जा सकता है और अन्तररायका उदय क्षीणमोह गुणस्थान तक होता है, इसलिए अलाभ परीषहका सद्भाव वहाँ तक कहा है । किन्तु कार्यरूप में ये दोनों परीषह भी प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही जानने चाहिए । आगे इनका सद्भाव दर्शनमोहनीयके उदय और अन्तरायके उदयकी अपेक्षा ही कहा है ।
प्रस्तावना
प्रसङ्गसे यहाँ इस बातका विचार कर लेना भी इष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य गृद्धपिच्छ बादरसाम्पराय जीवके सब परीषहोंका सद्भाव बतलाते हैं। उन्हें बादरसाम्पराय शब्दका अर्थ क्या अभिप्रेत रहा होगा। हम यह तो लिख ही चुके हैं कि दर्शनमोहनीयका उदय अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तक ही होता है, इसलिए अदर्शनपरीषहका सद्भाव अप्रमत्तसंयत गुणस्थानसे आगे कथमपि नहीं माना जा सकता। ऐसी अवस्थामें बादरसाम्पराय का अर्थ स्थूल कषाय युक्त जीव ही हो सकता है। यही कारण है कि सर्वार्थसिद्धि में इस पद की व्याख्या करते हुए यह कहा है कि 'यह गुणस्थानविशेषका ग्रहण नहीं है। तो क्या है? सार्थक निर्देश है। इससे प्रमत्त आदि संयतोंका ग्रहण होता है' ।'
किन्तु तस्याभाष्य में 'मादरसाम्पराये सबै।' इस सूत्रको व्याख्या इन शब्दों में की है---'बावरसाम्यरायसंयते सर्वे द्वाविंशतिरपि परीषहाः सम्भवन्ति ।' अर्थात् बादरसाम्पराय संयतके सब अर्थात् बाईस परीषह ही सम्भव हैं। तस्वार्थभाष्य के मुख्य व्याख्याकार सिद्धसेनगणि हैं। वे तत्वार्थभाध्यके उक्त शब्दोंकी व्याख्या इन शब्दों में करते हैं
1. नेवं गुणस्थान विशेषग्रहणम्। किं तर्हि ? अर्थनिर्देशः तेन प्रमत्तादीनां संयतादीनां ग्रहणम् । स० [अ० 9, सू० 12
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