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सर्वार्थसिद्धि
दूसरे यदि आचार्य पूज्यपादके सामने तत्त्वार्थभाष्यका पाठ उपस्थित होता तो वे 'चरमवेहा' इति वा पाठः' के स्थानमें 'चरमदेहोत्तमपुरुषा इति वा पाठः' ऐसा उल्लेख करते, क्योंकि उन्हें 'चरमोत्तमदेह' इस पाठके स्थान में दूसरा पाठ क्या उपलब्ध होता है इसका निर्णय करना था। ऐसी अवस्था में अधूरे पाठान्तरका भूल कर भी वे उल्लेख नहीं करते ।
स्पष्ट है कि 'क्षिप्रनिःसत' के समान यह पाठान्तर भी आचार्य पूज्यपादको दूसरे टीका-ग्रन्थों में उपलब्ध हुआ होगा और उसी आधारसे उन्होंने यहाँ उसका उल्लेख किया है।
3. अर्थान्तरन्यासका एक उदाहरण हम रचना शैलीके प्रसंगमें अध्याय 4 सूत्र 22 का उल्लेख करते समय दे आये हैं। वहाँ हमने यह संकेत किया ही है कि उक्त सूत्र में पूरे आगमिक अर्थकी संगति बैठती न देख आचार्य पूज्यपादने सूत्र और आगम दोनोंका सुन्दरतापूर्वक निर्वाह किया है। यह प्रथम अर्थान्तरन्यास का उदाहरण है।
4. द्वितीय उदाहरण स्वरूप हम 9वें अध्यायका 11वां सूत्र उपस्थित करते हैं। इसमें वेदनीय निमित्तक 11 परीषह जिन के कही गयी हैं। इस विषयको अधिक स्पष्ट करनेके लिए हम थोड़ा विस्तारके साथ चर्चा करना इष्ट मानेंगे।
परीषहों का विचार छठे गुणस्थानसे किया जाता है, क्योंकि श्रामण्य पदका प्रारम्भ यहींसे होता है, अत: इस गुणस्थानमें सब परीषह होते हैं यह तो ठीक ही है, क्योंकि इस गुणस्यानमें प्रमादाला सद्भाव रहता है और प्रमादके सद्भाव में क्षुधा दिजन्य विकल्प और उसके परिहारके लिए चित्रवृत्तिको उस ओरसे हटाकर धर्म्यध्यानमें लगाने के लिए प्रयत्नशील होना यह दोनों कार्य बन जाते हैं। तथा सातवें गुणस्थानकी स्थिति प्रमाद रहित होकर भी इससे भिन्न नहीं है, क्योंकि इन दोनों गुणस्थानों में प्रमाद और अप्रमादजन्य ही भेद है । यद्यपि विकल्प और तदनुकूल प्रवृत्तिका नाम छठा गुणस्थान है और उसके निरोधका नाम सातवाँ गुणस्थान है तथापि इन दोनों गुणस्थानोंकी धारा इतनी अधिक चढ़ा-उतारकी है जिससे उनमें परीषह और उनके जय आदि कार्योंका ठीक तरहसे विभाजन न होकर ये कार्य मिलकर दोनोंके मानने पड़ते हैं। छठे गुणस्थान तक वेदनीयकी उदीरणा होती है आगे नहीं, इसलिए यह कहा जा सकता है कि वेदनीयके निमित्तसे जो क्षुधादिजन्य वेदनकार्य छठे गुणस्थान में होता है वह आगे कथमपि सम्भव नहीं। विचारकर देखने पर बात तो ऐसी ही प्रतीत होती है और है भी वह वैसी ही, क्योंकि अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानोंमें जब जीवकी न तो बाह्यप्रवृत्ति होती है और न बाह्यप्रवृत्तिके अनुकूल परिणाम ही होते हैं। साथ ही कषायोंका उदय अव्यक्तरूपसे अबुद्धिपूर्वक होता है, तब वहीं क्षुधादि परीषहोंका सद्भाव मानना कहाँतक उचित है यह विचारणीय हो जाता है। इसलिए यहाँ यह देखना है कि आगेके गुणस्थानों में इन परीषहोंका सद्भाव किस दष्टि से माना गया है।
किसी भी पदार्थका विचार दो दृष्टियोंसे किया जाता है-एक तो कार्य की दृष्टि से और दूसरे
1. यद्यपि वाचक उमास्वातिने 'औपपातिक' सूत्र के प्रत्येक पदका व्याख्यान करते हुए 'उत्तमपुरुष' पदका स्वतन्त्र व्याख्यान किया है और बादमें उपसंहार करते हुए उन्होंने ‘उत्तमपुरुष पदको छोड़कर शेषको 'ही अनपवर्त्य आयुवाले बतलाया है, इसलिए इस परसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि 'चरमदेहोत्तमपुरुष' पदके समान केवल 'चरमदेह' पद भी उन्हें स्वयं इष्ट रहा है। किन्तु यहाँ देखना यह है कि वाचक उमास्वा तिने स्वयं सूत्रकार होते हुए भाष्यमें ये दो पाठ किस आधारसे स्वीकार किये हैं। जब उनका यह निश्चय था कि उत्तमपुरुष भी अनपवर्त्य आयुवाले होते हैं तब उपसंहार करते हुए अन्योंके साथ उनका भी ग्रहण करना था। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। इससे स्पष्ट विदित होता है कि वाचक उमास्वातिको भी दो पाठ उपलब्ध हुए होंगे और उन्होंने क्रमसे दोनोंका व्याख्यान करना उचित समझा होगा । इस आधारसे वे सूत्रकार तो किसी हालत में हो ही नहीं सकते।
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