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सर्वार्थसिद्धि
'सम्यग्दर्शनमान चारित्राणि मोक्षमार्गः ॥1॥'
यह है भारतीय दर्शनोंके प्रणयनका सार । इसलिए पूज्यपाद स्वामीका यह कहना सर्वथा उचित है कि जो मनुष्य धर्मभक्ति से इस तत्त्वार्यवृत्तिको पढ़ते और सुनते हैं मानो उन्होंने परम सिद्धिसुखरूपी अमृतको अपने हाथ में ही कर लिया है। फिर चक्रवर्ती और इन्द्रके सुखोंके विषय में तो कहना ही क्या है।' इससे इसका 'सर्वासिद्धि' यह नाम सार्थक है ।
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2. रचनाशैली - हम कह आये हैं कि सर्वार्थसिद्धि वृत्ति-ग्रन्थ है । वृत्तिकारने भी इसे 'वृत्ति' ही 'कहा है । जिसमें सूत्र के पदोंका आश्रय लेकर पद घटना के साथ प्रत्येक पदका विवेचन किया जाता है उसे वृत्ति कहते हैं। वृत्तिका यह अर्थ सर्वार्थ सिद्धि में अक्षरशः घटित होता है सूत्रका शायद ही कोई पद हो जिसका इसमें व्याख्यान नहीं किया गया है। उदाहरणार्थ -- तत्त्वार्थसूत्र के अध्याय 1 सूत्र 2 में केवल 'तत्त्व' या 'अर्थ' पद न रखकर 'तत्त्वार्थ' पद क्यों रखा है इसका विवेचन दर्शनान्तरोंका निर्देश करते हुए उन्होंने जिस विशदता से किया है, इसीसे वृत्तिकारकी रचनाशैलीका स्पष्ट आभास मिल जाता है। वे सूत्रगत प्रत्येक पदका साङ्गोपाङ्ग विचार करते हुए आगे बढ़ते हैं । सूत्रपाठ में जहाँ जागमसे विरोध दिखाई देता है वहाँ वे सूत्रपाठकी यथावत् रक्षा करते हुए बड़े कौशलसे उसकी सङ्गति बिठलाते हैं। अध्याय 4 सूत्र 19 और सूत्र 22 में उनके इस कौशलके और भी स्पष्ट दर्शन होते हैं। सूत्र 19 में 'नवग्रैवेयकेषु' न कहकर 'नवसु ग्रं वेयकेषु' कहा है। प्रत्येक आगमामासीसे यह बात छिपी हुई नहीं है कि नौ ग्रैवेयक के सिवा अनुदिश संज्ञक नौ विमान और हैं। किन्तु मूल सूत्र में नौ अनुदिशोंका उल्लेख नहीं किया है। आचार्य पूज्यपाद यह रहस्य छिपा नहीं रहता। वे सूत्रकारकी मनसाको भांप लेते हैं और 'नव' पदको समसित न रखनेका कारण बतलाते हुए वे स्पष्ट घोषणा करते हैं कि यहाँ पर नौ अनुदिशोंका ग्रहण करने के लिए 'नव' पदका पृथक् रूप से निर्देश किया है। 22वें सूत्रकी व्याख्याके समय भी उनके सामने यही समस्या उपस्थित होती है। आगम के दूसरे कल्प तक पीतलेश्याका बारहवें कल्पतक पद्मलेश्याका और आगे शुक्ललेश्या का निर्देश किया है। आगमकी इस व्यवस्थाके अनुसार उक्त सूत्रकी संगति बिठाना बहुत कठिन है । किन्तु वे ऐसे प्रसंग पर जिस साहससे आगम और सूत्रपाठ दोनोंकी रक्षा करते हैं उसे देखते हुए हमारा मस्तक श्रद्धासे उनके चरणों में झुके बिना नहीं रहता ।
पाणिनीय व्याकरण पर पातञ्जल महाभाष्य प्रसिद्ध है । इसमें व्याकरण जैसे नीरस और कठिन विषयका ऐसी सरस और सरल पद्धति से विवेचन किया गया है कि उसे हाथ में लेनेके बाद छोड़नेको जी नहीं चाहता। यह तो हम आगे चलकर देखेंगे कि सर्वार्थसिद्धिकारने सर्वार्थसिद्धि लिखते समय उसका कितना उपयोग किया है। यहाँ केवल यही बतलाना है कि इसमें न केवल उसका भरपूर उपयोग हुआ है अपितु उसे अच्छी तरह पचाकर उसी शैली में इसका निर्माण भी हुआ है और आश्चर्य यह कि वह व्याकरणका ग्रन्थ और यह दर्शनका ग्रन्थ, फिर भी रचना में कहीं भी शिथिलता नहीं आने पायी है। सर्वार्थसिद्धिकी रचना शैलीको हम समतल नदीके गतिशील प्रवाहकी उपमा दे सकते हैं जो स्थिर और प्रशान्त भावसे आगे एक रूप में सदा बढ़ता ही रहता है, रुकना कहीं वह जानता ही नहीं ।
आचार्य पूज्यपादने इसमें केवल भाषा सौष्ठवका ही ध्यान नहीं रखा है, अपितु आगमिक परम्पराका भी पूरी तरह निर्वाह किया है। प्रथम अध्यायका सातवाँ और आठ सूत्र इसका प्राब्जल उदाहरण है। इन सूत्रों की व्याख्या का आलोडन करते समय उन्होंने सिद्धान्त ग्रन्थों का कितना गहरा अभ्यास किया था इस बातका सहज ही पता लग जाता है। इस परसे हम यह दृढ़तापूर्वक कहनेका साहस करते हैं कि उन्होंने सर्वार्थसिद्धि लिखकर जहाँ एक ओर संस्कृत साहित्यको श्रीवृद्धि की है वहाँ उन्होंने परम्परासे आये हुए आगमिक साहित्यकी रक्षाका श्रेय भी सम्पादित किया है।
निचोड़रूप में सर्वार्थ सिद्धि की रचनाशैलीके विषय में संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि वह ऐसी प्रसन्न और विषयस्पर्शी शैली में लिखी गयी है जिससे उत्तरकालीन वाचक उपास्यातिप्रभृति सभी तत्वार्थसूत्रके भाष्यकारों, वार्तिककारों और टीकाकारोंको उसका अनुसरण करनेके लिए बाध्य होना पड़ा है ।
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