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प्रस्तावना
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गयी है। प्रत्येक अध्यायके अन्तमें स्वयं आचार्य पूज्यपादने समाप्ति सूचक पुष्पिका दी है। उसमें इसका नाम सर्वार्थसिद्धि बतलाते हुए इसे वृत्तिग्रन्थ रूपसे स्वीकार किया है। इसकी प्रशंसा में टीकाके अन्त में वे लिखते हैं...
स्वर्गापवर्गसुखमाप्तुमनोभिरायः जैनेन्द्रशासनवरामृतसारभूता।
सर्वार्थसिद्धिरिति सद्भिरुपात्तनामा तत्त्वार्थवृत्तिरनिशं मनसा प्रधार्या ॥ जो आर्य स्वर्ग और मोक्षसुखके इच्छुक हैं वे जैनेन्द्र शासनरूपी उत्कृष्ट अमृतमें सारभूत और सज्जन पुरुषों द्वारा रखे गये सर्वार्थसिद्धि इस नामसे प्रख्यात इस तत्त्वार्थवृत्तिको निरंतर मनःपूर्वक धारण करें।
वे पुनः लिखते हैं
तस्वार्थत्तिमुदिता विदितार्थतत्वाः शृण्वन्ति ये परिपठन्ति च धर्मभक्त्या ।
हस्ते कृतं परमसिद्धिसुखामृतं तेर्मामरेश्वरसुखेष किमस्ति वाच्यम् ।
सब पदार्थोके जानकार जो इस तत्त्वार्थवृत्तिको धर्मभक्तिसे सुनते हैं और पढ़ते हैं मानो उन्होंने परम सिद्धिसुखरूपी अमृतको अपने हाथ में ही कर लिया है। फिर उन्हें चक्रवर्ती और इन्द्रके सुखके विषय में तो कहना ही क्या है ?
'सर्वार्थसिद्धि' इस नामके रखनेका प्रयोजन यह है कि इसके मनन करनेसे सब प्रकारके अर्थोकी अथवा सब अर्थों में श्रेष्ठ मोक्षसुखकी सिद्धि प्राप्त होती है। यह कथन अत्युक्तिको लिये हुए भी नहीं है, क्योंकि इसमें तत्त्वार्थसूत्रके जिस प्रमेयका व्याख्यान किया गया है वह सब पुरुषार्थों में प्रधानभूत मोक्ष पुरुषार्थका साधक है।
भारतीय परम्पराने अनेक दर्शनोंको जन्म दिया है। किन्तु उन सबके मूलमें मोक्ष पुरुषार्थकी प्राप्ति प्रधान लक्ष्य रहा है। महर्षि जैमिनि पूर्वमीमांसादर्शनका प्रारम्भ इस सूत्रसे करते हैं
'ओं अथातो धर्मजिज्ञासा ॥1॥' और इसके बाद वे धर्मका स्वरूप निर्देश कर उसके साधनोंका विचार करते हैं। यही स्थिति व्यास महर्षिकी है। उन्होंने शारीरिक मीमांसादर्शनको इस सूत्रसे प्रारम्भ किया है
'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा॥1॥' . अब न्यायदर्शनके सूत्रोंको देखिए। उसके प्रणेता गौतम महर्षि लिखते हैं कि प्रमाण, प्रमेय, संशय, ' प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान इनका तत्त्वज्ञान होनेसे निःश्रेयसकी प्राप्ति होती है ॥1॥' सूत्र इस प्रकार है
'प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्रेयसाधिगमः ॥1॥' वैशेषिकदर्शनके प्रणेता महर्षि कणादने भी यह दृष्टि सामने रखी है। वे प्रारम्भ में लिखते हैं
'अथातो धर्म व्याख्यास्यामः॥1॥' कपिल ऋषिकी स्थिति इससे कुछ भिन्न नहीं है। उन्होंने भी अत्यन्त पुरुषार्थको ही मुख्य माना है। वे सांख्य दर्शनका प्रारम्भ इन शब्दों द्वारा करते हैं
'अथ त्रिविधःखात्यन्तनिवत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः।।1।' योगदर्शनका प्रारम्भ तो और भी मनोहारी शब्दों द्वारा हुआ है। महर्षि पतञ्जलि कहते हैं-'अब योगका अनुशासन करते हैं ।1।। योगका अर्थ है चित्तवृत्तिका निरोध ॥ 2 ॥ चित्तवृत्तिका निरोध होनेपर ही द्रष्टाका अपने स्वरूपमें अवस्थान होता है ।। 3॥' इस विषयके प्रतिपादक उनके सूत्र देखिए
'अब योगानुशासनम् ॥1॥ योगश्चित्तवृत्तिनिरोषः ॥2॥ तवा द्रष्टः स्वरूपेऽवस्थानम् ॥3॥
इन सबके बाद जब हमारी दृष्टि जैन दर्शन के सूत्र ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र पर जाती है तो हमें वहाँ भी उसी तत्त्वके दर्शन होते हैं। इसका प्रारम्भ करते हुए आचार्य गद्धपिच्छ लिखते हैं
1. इति सर्वार्थसिद्धिसंज्ञकायां तत्त्वार्थवत्तौ प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।
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