________________
प्रस्तावना
25
ज्ञानके पांच भेदोंका नाम निर्देश करती है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा 'मत्यादीनाम्' इतना कहकर ही छोड़ देती है। तीसरा स्थल दर्शनावरणके नामोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें श्वेताम्बर परम्परा पाँच निद्राओंके नामोंके साथ वेदनीय' पद अधिक जोड़ती है। चौथा स्थल मोहनीयके नामोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें नामोंके क्रमके प्रतिपादन में दोनों परम्पराओंने अलग-अलग सरणी स्वीकार की है । पाँचवें अन्तरायके नामोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा पाँच नामोंका निर्देश करती है और श्वेताम्बर परम्परा 'दानादीनाम्' इतना कहकर छोड़ देती है। छठा स्थल पुण्य और पाप प्रकृतियों के प्रतिपादक दो सूत्र हैं। यहाँ श्वेताम्बर परम्पराने एक तो पुण्य प्रकृतियों में सम्यक्त्व, हास्य, रति और पुरुषवेद इनकी भी परिगणना की है। दूसरे पापप्रकृतियोंका प्रतिपादक सत्र नहीं कहा है।
नौवें अध्याय में ऐसे छह स्थल हैं । प्रथम स्थल दस धर्मोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा 'उत्तम' पदको क्षमा आदिका विशेषण मानकर चलती है और श्वेताम्बर परम्परा धर्मका विशेषण मानकर चलती है, फिर भी वह 'उत्तम' पदका पाठ 'धर्म' पदके साथ अन्तमें न करके सूत्रके प्रारम्भ में ही करती है। दूसरा स्थल पांच चारित्रोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा 'इति' पदको अधिक स्वीकार करती है। तीसरा स्थल ध्यानका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें 'अन्तर्मुहूर्तात्' के स्थान में श्वेताम्बर परम्परा 'आ मुहूर्तात्' पाठ स्वीकार कर उसे स्वतन्त्र सूत्र मानती है। चौथा स्थल आर्तध्यानके प्रतिपादक सूत्र हैं। इनमें श्वेताम्बर परम्पराने एक तो 'मनोज्ञस्य' और 'अमनोज्ञस्य' के स्थान में बहुवचनान्त पाठ स्वीकार किया है। दूसरे वेदनायाश्च' सूत्रको विपरीतं मनोज्ञस्य' के पहले रखा है। पांचवां स्थल धर्मध्यानका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें श्वेताम्बर परम्परा 'अप्रमत्तसंय तस्य' इतना पाठ अधिक स्वीकार कर
उपशान्तक्षीणकषाययोश्च' यह सूत्र स्वतंत्र मानती है। छठा स्थल एकाश्रये' इत्यादि सूत्र है। इसमें 'सवितर्कविचारे' के स्थान में श्वेताम्बर परम्परा 'सवितर्के' पाठ स्वीकार करती है।
दसवें अध्याय में ऐसे तीन स्थल हैं। प्रथम स्थल दूसरा सूत्र है। श्वेताम्बर परम्परा इसे दो सूत्र मानकर चलती है। दूसरा स्थल तीसरा और चौथा सूत्र है। श्वेताम्बर परम्परा एक तो इन दो सूत्रोंको एक मानती है। दूसरे भव्यत्वानाम्' के स्थान में 'भव्यत्वाभावात्' पाठ स्वीकार करती है। तीसरा स्थल 'पूर्वप्रयोगात्' इत्यादि सूत्र है। इस सूत्रके अन्त में श्वेताम्बर परम्परा 'तद्गतिः' इतना पाठ अधिक स्वीकार करती है । तथा इस सूत्र के आगे कहे गये दो सूत्रोंको वह स्वीकार नहीं करती।
इन पाठ-भेदोंके अतिरिक्त दसों अध्यायों में छोटे-मोटे और भी बहुतसे फ़र्क हुए हैं जिनका विशेष महत्व न होनेसे यहाँ हमने उनका उल्लेख नहीं किया है।
3. स-पाठों में मतभेव-यहाँ हमने दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परामान्य जिस सूत्र-पाठोंके अन्तरका उल्लेख किया है वह सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्र-पाठोंको ध्यान में रखकर ही किया है। यदि हम इन सूत्र-पाठोंके भीतर जाते हैं तो हमें वह मतभेद और भी अधिक दिखाई देता है। फिर भी यह बात सर्वार्थ सिद्धिमान्य सूत्र-पाठ पर लागू नहीं होती । सर्वार्थसिद्धिकारके सामने जो पाठ रहा है और उन्होंने निर्णय करके जिसे सूत्रकारका माना है, उत्तरकालवी सभी दिगम्बर टीकाकार प्राय: उसीको आधार मानकर चले हैं। किन्तु तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठकी स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। हरिभद्रसूरि और सिद्धसेन गणिने तत्त्वार्थभाष्यके आधारसे अपनी टीकाएँ लिखी अवश्य हैं और इन दोनों आचार्योंने तत्त्वार्थभाष्यके साथ तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्र-पाठकी रक्षा करनेका भी प्रयत्न किया है। किन्तु उनके सामने ही सूत्र-पाठमें इतने अधिक पाठभेद और अर्थभेद हो गये थे जिनका उल्लेख करना उन्हें आवश्यक हो गया । उदाहरणके लिए यहाँ हम पांचवें अध्यायके 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' सूत्रको उपस्थित करते हैं। सिद्धसेन गणिने इस सूत्र की व्याख्या करते हुए अनेक मतभेदोंका उल्लेख किया है। उनके सामने इस सूत्रके जो प्रमुख मतभेद थे इस प्रकार हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org