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सर्वार्थसिद्धि जीवके प्रदेशोंकी एक साथ परिगणना करती है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा जीवके प्रतिपादक सूत्रको स्वतन्त्र मानकर चलती है। तीसरा स्थल 'सद्व्यलक्षणम्' सूत्र है । श्वेताम्बर परम्परा इसे सूत्ररूपमें स्वीकार नहीं करती। चौथा स्थल पुद्गलोंका बन्ध होने पर वे किस रूपमें परिणमन करते हैं इस बातका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें श्वेताम्बर परम्परा 'सम' पदको अधिक स्वीकार करती है। साधारणतः दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराएँ द्वियधिक गुणवाले का अपनेसे हीन गुणवाले के साथ बन्ध होता है' इस मतसे सहमत हैं किन्तु सूत्र रचनामें और उसके अर्थकी संगति बिठलाने में श्वेताम्बर परम्परा अपनी इस आगमिक परिपाटीका त्याग कर देती है। पांचवा स्थल काल द्रव्यका प्रतिपादक सूत्र है। श्वेताम्बर परम्परा इस सूत्र द्वारा काल द्रव्यके अस्तित्वमें मतभेद स्वीकार करती है। समस्त श्वेताम्बर आगम साहित्य में काल द्रव्यके स्थानमें 'अद्धासमय' का उल्लेख किया है और इसे प्रदेशात्मक द्रव्य न मान कर पर्याय द्रव्य स्वीकार किया है। छठा स्थल परिणामका प्रतिपादक सूत्र है। दिगम्बर परम्परा 'तद्भावः परिणाम:' केवल इस सूत्रको स्वीकार करती है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा इसके साथ तीन अन्य सूत्र स्वीकार करती है।
छठे अध्यायमें ऐसे दस स्थल हैं। प्रथम स्थल दूसरा सूत्र है। इसे दिगम्बर परम्परा एक और श्वेताम्बर परम्परा दो सूत्र मानती है। दूसरा स्थल 'इन्द्रियकपायाव्रतक्रियाः' इत्यादि सूत्र है। दिगम्बर परम्पराने इसे इसी रूप में स्वीकार किया है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा इसके स्थानमें 'अव्रतकषायेन्द्रियक्रिया:' यह पाठ स्वीकार करती है। तीसरा स्थल सातावेदनीयके आस्रवका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा 'भूतव्रतत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः' इस पाठको स्वीकार करती है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा इसके स्थानमें 'भूतव्रत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमादि योगः' ऐसा पाठ स्वीकार करती है। चौथा स्थल चारित्रमोहके आस्रवका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें श्वेताम्बर परम्परा तीव्र' पदके बाद आत्म' पदको अधिक स्वीकार करती है । पाँचवाँ स्थल नरकायुके आस्रवका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें श्वेताम्बर परम्परा मध्यमें 'च' पदको अधिक स्वीकार करती है। छठा स्थल मनुष्यायुके आस्रवके प्रतिपादक दो सूत्र हैं। इन्हें दिगम्बर परम्परा दो सूत्र मानती है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा उन दोनोंको एक मानकर चलती है। इतना ही नहीं, किन्तु वह स्वभावमार्दवं' के स्थान में स्वभावमार्दवार्जवं' पाठ स्वीकार करती है। सातवां स्थल देवायुके आस्रवके प्रतिपादक सूत्र हैं। इन सूत्रोंमें दिगम्बर परम्पराने 'सम्यक्त्वं च' सूत्रका स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा इसे सूत्र रूप में स्वीकार करने से हिचकिचाती है। आठवाँ स्थल शुभ नामके आस्रवका प्रतिपादक सत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा 'तत्' पद को अधिक स्वीकार करती है। नौवा स्थल तीर्थङ्कर प्रकृतिके आस्रवका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें श्वेताम्बर परम्परा 'साधुसमाधिः' के स्थानमें 'संघसाधुसमाधिः' पाठ स्वीकार करती है। दसवाँ स्थल उच्चगोत्रके आस्रवका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें तद्विपर्ययो' के स्थानमें श्वेताम्बर परम्परा तद्विपर्ययो' पाठ स्वीकार करती है।
सातवें अध्यायमें ऐसे छह स्थल हैं। प्रथम स्थल पाँच व्रतोंकी पांच-पांच भावनाओंके प्रतिपादक पांच सूत्र हैं। इन्हें दिगम्बर परम्परा सूत्ररूप में स्वीकार करती है और श्वेताम्बर परम्परा नहीं। दूसरा स्थल हिसादिष्विहामुत्र' सूत्र है। इसमें श्वेताम्बर परम्परा 'अमुत्र' पदके बाद 'च' पदको अधिक स्वीकार करती है। तीसरा स्थल मैत्री-' इत्यादि सूत्र है। इसके मध्य में दिगम्बर परम्परा 'च' पदको अधिक स्वीकार करती है। चौथा स्थल 'जगत्काय- इत्यादि सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा 'वा' पाठको और श्वेताम्बर परम्परा 'च' पाठको स्वीकार करती है। पांचवां स्थल सात शीलोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा 'प्रोषधोपवास' पाठको और श्वेताम्बर परम्परा प्रौषधोपवास' पाठको स्वीकार करती है। छठा स्थल अहिंसाणुव्रतके पाँच अतीचारोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें छेद के स्थानमें श्वेताम्बर पाठ सविच्छेद' है।
आठवें अध्याय में ऐसे छह स्थल हैं। प्रथम स्थल दूसरा सूत्र है। श्वेताम्बर परम्परा इसे दो सूत्र मानकर चलती है। दूसरा स्थल ज्ञानावरणके पांच भेदोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा
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