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प्रस्तावना
3. पाठभेद और प्रर्थान्तरन्यास- सर्वार्थसिद्धि लिखते समय आचार्य पूज्यपादके सामने तत्त्वार्थसूत्रपर लिखा गया अन्य कोई टीका ग्रन्थ या भाष्यग्रन्य था इसका तो स्वयं उन्होंने उल्लेख नहीं किया है किन्तु सर्वार्थसिद्धि परसे इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यह लिखते समय उनके सामने एक-दो छोटे-मोटे सूत्रपाठ या टीकाग्रन्थ अवश्य थे और उनमें एक-दो स्थलोंपर महत्वपूर्ण पाठभेद भी थे। ऐसे पाठभेदोंकी चर्चा आचार्य पूज्यपादने दो स्थलों पर की है। प्रथम स्थल है प्रथम अध्यायका 16वाँ सूत्र और दूसरा स्थल है दूसरे अध्यायका 53वाँ सूत्र ।
1. प्रथम अध्यायका 16वाँ सूत्र इस प्रकार है-
बहुबहुविविधानि तानुक्तान् वाणां
तराणाम् ।। 16 ।।
इसमें क्षिप्रके आद अनिःसूत पाठ है किन्तु इस पर आचार्य पूज्यपाद सूचित करते हैं कि 'अपरेषां क्षिनिःसृत इति पाठ: ।' अर्थात् अन्य आचार्यों के मतसे क्षिके बाद अनिःसृतके स्थानपर निःसृत पाठ है ।
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वर्तमान में हमारे सामने दिगम्बर और श्वेताम्बर जितने भी तत्त्वार्थ सूत्र के टीकाग्रन्थ और सूत्रपाठ उपस्थित हैं उनमें से किसीमें भी यह दूसरा पाठ उपलब्ध नहीं होता, इसलिए यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि इनमें से किसी एक टीकाग्रन्थ या सूत्रपाठ आधारसे आचार्य पूज्यपादने इस मतभेद का उल्लेख किया है । तत्त्वार्थभाष्यकार वाचक उमास्वातिने अवश्य ही सर्वार्थसिद्धिमान्य 'अनिःसृत' पदको स्वीकार न कर उसके स्थान में 'अनिश्रित' पाठ स्वीकार किया है। इसलिए यह भी शंका नहीं होती कि आचार्य पूज्यपादके सामने तत्त्वार्थभाष्य या तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठ था और उन्होंने इस पाठान्तर द्वारा उसकी ओर इशारा किया है। सम्भव यही दिखाई देता है कि सर्वार्थसिद्धि टीका लिखते समय उनके सामने जो टीकाटिप्पणियाँ उपस्थित थीं उनमें से किन्हीं में यह दूसरा पाठ रहा होगा और उसी माघारसे आचार्य पूज्यपादने उस पाठभेदका यहाँ उल्लेख किया है । इतना ही नहीं, किन्तु किसी टीकाग्रन्थ में उसकी संगति भी बिठलायी गयी होगी। यही कारण है कि आचार्य पूज्यपाद केवल पाठभेद का उल्लेख करके ही नहीं रह गये। किन्तु इस पाठको स्वीकार कर लेनेपर उसकी व्याख्या दूसरे आचार्य किस प्रकार करते हैं इस बातका भी उन्होंने 'ते एवं वर्णयन्ति' इत्यादि वाक्य द्वारा उल्लेख किया है ।
2. दूसरे अध्याया 53वाँ सूत्र इस प्रकार है
'औपपादिकचरमोसमयेहासंख्येय वर्षायुषोऽनपत्युः ॥ 53 ||
इसमें 'चरमोलमदेह' पाठ है। इससे यह भ्रम होता है कि क्या चरमशरीरी सभी उत्तम देहवाले होते'
है या कोई-कोई यदि सभी उत्तम देहवाले होते हैं तो उत्तम पदके देनेकी क्या आवश्यकता है और यदि कोई कोई उत्तम देवाले होते हैं तो फिर क्या यह माना जाय कि जो चरमशरीरी उत्तम देहवाने होते हैं केवल वे ही अपवर्त्य आयुवाले होते हैं, अन्य चरमशरीरी नहीं ? बहुत सम्भव है कि इसी दोषका परिहार करने के लिए. किसीने 'चरमदेह' पाठ स्वीकार किया होगा जो कुछ भी हो पूज्यपाद आचार्य के सामने दोनों पाठ थे और उन्होंने 'चरमोतमदेह' पाठको सूत्रकारका मानकर स्वीकार कर लिया और 'चरमदेह' पाठका पाठान्तर के रूप में उल्लेख कर दिया ।
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तत्वार्थभाष्यमान्य जो सूत्रपाठ इस समय उपलब्ध होता है उसमें चरमवेहोलमपुरुष' पाठ है। इस परसे कुछ विद्वान् यह शंका करते हैं कि बहुत सम्भव है कि आचार्य पूज्यपादके सामने तत्त्वार्थभाष्य रहा हो और उसके आधारसे उन्होंने सर्वार्थसिद्धि में इस पाठान्तरका उल्लेख किया हो; किन्तु हमें उनके इस कथन में
कुछ भी तथ्यांश नहीं दिखाई देता । कारण, एक तो तत्त्वार्थभाष्य में 'चरमदेह' पाठ ही नहीं है । उसमें 'चरमवेहोत्तमपुरुष' पाठ अवश्य ही उपलब्ध होता है किन्तु इस पाठके विषय में भी उसकी स्थिति धुंधली है। आचार्य सिद्धसेन ने अपनी तत्त्वार्थ भाष्यकी टीका में इस प्रसंगको उठाया है और अन्तमें यही कहा है कि हम नहीं कह सकते कि इस सम्बन्धमें वस्तुस्थिति क्या है।
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