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प्रस्तावना
समय तत्त्वार्थवातिक उपस्थित था, यहाँ तत्त्वार्थभाष्यकी उत्तरावधि निश्चित करनी है और इसके लिए हमें तत्त्वार्थभाष्य के साथ तत्वार्थवातिकका तुलनात्मक विचार करना है।
प्रायः यह तो सभी मनीषियोंने स्वीकार किया है कि तत्त्वार्थवार्तिक सर्वार्थसिद्धिको पचा कर लिखा गया है और इस बातके भी स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं कि तत्त्वार्थभाष्य तत्त्वार्थवातिकके पहलेकी रचना होनी चाहिए। इसके लिए हमें अन्यत्र प्रमाण खोजनेकी आवश्यकता नहीं है, किन्तु स्वयं तत्त्वार्थवातिक इसका साक्षी है। सर्वप्रथम तत्त्वार्थवातिककी उत्थानिकाको ही लीजिए। तत्त्व.र्थसूत्रकी रचना किस निमित्तसे हुई है इस विषय में सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्य में व्याख्याभेद है। सर्वार्थसिद्धि में स्वीकार किया गया है कि कोई भव्य मुनियोंकी सभा में बैठे हुए आचार्यवर्यसे प्रश्न करता है कि भगवन् ! आत्माका हित क्या है ? आचार्यवर्य उत्तर देते हैं कि 'मोक्ष' । वह पुनः प्रश्न करता है कि इसकी प्राप्तिका उपाय क्या है और इसीके उत्तर स्वरूप तत्त्वार्थसूत्रकी रचना हुई है। किन्तु तत्त्वार्थभाष्य में यह उत्थानिका दूसरे प्रकारसे निर्दिष्ट की गयी है। वहाँ बतलाया है कि इस लोक में मोक्षमार्गके बिना हितका उपदेश होना दुर्लभ है, इसलिए मोक्षमार्गका उपदेश करते हैं । अब इन दोनों उत्थानिकाओंके प्रकाश में तत्त्वार्थवार्तिक की उत्थानिकाको पढ़िए । देखनेसे विदित होगा कि इसमें क्रमसे सवार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्य इन दोनोंकी उत्थानिकाओंका स्पष्टत: निर्देश किया है। यही नहीं इस में तत्त्वार्थभाष्यको उत्थानिकाका निर्देश 'अपरे' पदसे प्रारम्भ किया है। स्पष्ट है कि तत्त्वार्थ वार्तिककार सर्वार्थसिद्धिकी उत्थानिकाको दिगम्बर परम्परासम्मत मानते रहे और तत्त्वार्थभाध्यकी उत्थानिका. को अन्यकी । यह उत्थानिकाकी बात हुई।
आगे सूत्रपाठको देखिए-.-तत्त्वार्थभाष्यकारने तीसरे अध्यायके प्रथम सूत्र में पृथुतराः' पाठ अधिक स्वीकार किया है। श्वेताम्बर आगम साहित्य में इस अर्थको व्यक्त करनेके लिए 'छत्ताइछत्ता' पाठ उपलब्ध होता है। तत्त्वार्थभाष्यकारने भी इस पदकी व्याख्या करते हुए 'छत्रातिच्छत्रसंस्थिताः' पद द्वारा उसका स्पष्टीकरण किया है। यह पाठ सवार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ में नहीं है । तत्त्वार्थवार्तिककारकी न केवल इसपर दृष्टि पड़ती है अपितु इसे वे आड़े हाथों लेते हैं और यह बतलानेका प्रयत्न करते हैं कि सूत्र में 'पथतरा:' पाठ असंगत है।
साधारणतः सर्वार्थ सिद्धि मान्य सूत्रपाठसे तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठमें काफी परिवर्तन हुआ है पर तत्त्वार्थवातिककार उन सब सूत्रपाठोंकी चर्चा नहीं करते। वे प्रायः तत्त्वार्थभाष्यके ऐसे ही सूत्रपाठका विरोध व्यक्त करते हैं जिसे स्वीकार करने पर स्पष्टत: आगम विरोध दिखाई देता है। चौथे अध्याय में शेषाः स्पर्श-' इत्यादि सूत्र आता है। तत्त्वार्थभाष्यके अनुसार इस सूत्रके अन्त में 'द्वयोर्द्वयोः' इतना पाठ अधिक उपलब्ध होता है। भट्ट अकलंकदेवकी सूक्ष्मदृष्टि इस पाठ पर जाती है और वे आर्षसे विरोध बतला कर इस अधिक पाठको स्वीकार करना मान्य नहीं करते । इसी प्रकार पांचवें अध्याय में 'बन्धेऽधिको पारिणामिको च' सूत्र आता है। किन्तु तत्त्वार्थभाष्य में इसका परिवर्तित रूप इस प्रकार उपलब्ध होता है -बन्धे समाधिको पारिणामिको।'
यह स्पष्ट है कि आगममें बन्धकी जो व्यवस्था निर्दिष्ट की गयी है उसके साथ इस सूत्र में आये हुए 'सम' शब्दका मेल नहीं बैठता। तत्त्वार्थवातिककारकी दृष्टि से यह बात भी छिपी नहीं रहती, इसलिए आगमसे विरोध होनेके कारण वे स्पष्ट शब्दों में इसकी अप्रामाणिकता घोषित करते हैं। यही दशा तत्त्वार्थभाष्यमें आये हए पांचवें अध्यायके अन्तिम तीन सूत्रोंकी होती है। वे सूत्र हैं
'अनाविराविमांश्च ।। 42॥ रूपिच्वाविमान् ॥ 43 ।। योगोपयोगी जीवेषु ।। 44 ।' इन सूत्रोंमें परिणामके अनादि और सादि ये दो भेद करके पुदगल और जीवके परिणामको सादि कहा
1. देखो तत्त्वार्यभाष्य उत्थानिका श्लोक 31। 2. तत्त्वार्थवार्तिक उत्थानिका पृ०1। 3. तत्त्वार्थवार्तिक उत्थानिका पृ. 3।
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