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- सर्वार्थसिद्धि
1. एक पाठके अनुसार नित्यावस्थितान्यरूपाणि' एक सूत्र न होकर दो सूत्र हैं। प्रथम नित्यावस्थितानि' और दूसरा अरूपाणि'। धर्मादिक चार द्रव्य अरूपी हैं यह सिद्ध करनेके लिए 'अरूपाणि' स्वतंत्र सूत्र माना गया है।
2. दूसरे पाठके अनुसार नित्यावस्पितारूपाणि' सूत्र है। इसके अनुसार नित्यावस्थित-' पदके अन्तमें स्वतंत्र विभक्ति देने की कोई आवश्यकता नहीं। तीनों पद समसित होने चाहिए।
3. तीसरा मत है कि सूत्र तो नित्यावस्थितान्यरूपाणि' ही है। किन्तु इसमें नित्य' पद स्वतंत्र न होकर अवस्थित' पदका विशेषण है । इस मतके अनुसार प्रथम पदका नित्यं अवस्थितानि नित्यावस्थितानि' यह विग्रह होगा।
1. इनके सिवा वहाँ दो मतोंका और उल्लेख किया है। किन्तु वे केवल अर्थविषयक ही मतभेद हैं इसलिए उनकी यहाँ हमने अलगसे चर्चा नहीं की है।
___ आगे चलकर तो ये मतभेद और भी बढ़े हैं। प्रमाणस्वरूप यहाँ हम तत्त्वार्थसूत्रकी उस सटिप्पण प्रतिके कुछ पाठभेद उपस्थित करते हैं जिनका परिचय श्रीमान् पण्डित जुगुल किशोरजी मुख्तारने अनेकान्त वर्ष तीन किरण एक में दिया है । यह प्रति पण्डितजीके पास श्रीमान् पण्डित नाथूरामजी प्रेमीने भेजी थी।
इस प्रतिके आलोडन करनेसे यह तो साफ जाहिर होता है कि यह किसी श्वेताम्बर आचार्यकी कृति है, क्योंकि इसमें दिगम्बर आचार्योंको जड़, दुरात्मा और सूत्रवचनचौर इत्यादि शब्दों द्वारा सम्बोधित किया गया है। इसलिए इस प्रतिमें जो पाठभेद या अधिक सूत्र उपलब्ध होते हैं वे काफी महत्त्व रखते हैं। प्रतिमें पाये जाने वाले अधिक सूत्र ये हैं
तैजसमपि 50, धर्मा वंशा शैल्लाञ्जनारिष्टा माधव्या माधवीति च 2, उछवासाहारवेदनोपपातानुभावतश्च साध्या: 23, स द्विविधः 42, सम्यक्त्वं च 21, धर्मास्तिकायाभावात् ।।
तत्त्वार्थभाष्यकार इन्हें सूत्र रूप में स्वीकार नहीं करते। साथ ही तत्त्वार्थभाष्यके मुख्य टीकाकार हरिभद्रसूरि और सिद्धसेनगणि भी इन्हें सूत्र नहीं मानते, फिर भी टिप्पणकारने इन्हें सूत्र माना है। यदि हम इनके सूत्र होने और न होने के मतभेदकी बातको थोड़ी देरको भुला भी दें तो भी इनके मध्य में पाया जानेवाला 'सम्यक्त्वं च' सूत्र किसी भी अवस्थामें नहीं भुलाया जा सकता। तत्त्वार्थभाष्य में तो इसका उल्लेख है ही नहीं, अन्य श्वेताम्बर आचार्योने भी इसका उल्लेख नहीं किया है, फिर भी टिप्पणकार किसी पुराने आधारसे इसे सूत्र मानते हैं। इतना ही नहीं वे इसे मूल सूत्रकारकी ही कृति मानकर चलते हैं।
यह तो हुई सूत्रभेदकी चर्चा। अब इसके एक पाठभेदको देखिए । दिगम्बर परम्पराके अनुसार तीसरे अध्याय में सात क्षेत्रोंके प्रतिपादक सूत्रके आदिमें 'तत्र' पाठ उपलब्ध नहीं होता, किन्तु तत्त्वार्थभाष्यमान्य उक्त सूत्रके प्रारम्भ में 'तत्र' पद उपलब्ध होता है। फिर भी टिप्पणकार यहाँ तत्त्वार्थभाष्यमान्य पाठको स्वीकार न कर दिगम्बर परम्परामान्य पाठको स्वीकार करते हैं।
यहाँ देखना यह है कि जब तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य एक ही व्यक्तिकी कृति थी और श्वेताम्बर आचार्य इस तथ्यको भलीभाँति समझते थे तब सूत्रपाठके विषय में इतना मतभेद क्यों हुआ और खासकर उस अवस्थामें जब कि तत्वार्थभाष्य उस द्वारा स्वीकृत पाठको सुनिश्चित कर देता है। हम तो इस समस्त मतभेदको देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठ स्वीकृत होनेके पहले श्वेताम्बर परम्परामान्य सूत्रपाठ निश्चित करने के लिए छोटे-बड़े अनेक प्रयत्न हुए हैं और वे प्रयत्न पीछे तक भी स्वीकृत . होते रहे हैं। यही कारण है कि वाचक उमास्वाति द्वारा तत्त्वार्थभाष्य लिखकर सूत्रपाठके सुनिश्चित कर देने पर भी उसे वह मान्यता नहीं मिल सकी जो दिगम्बर परम्परामें सर्वार्थ सिद्धि और उस द्वारा स्वीकृत सूत्र पाठको मिली है।
2. सर्वार्थसिद्धि 1. नाम की सार्थकता-उपलब्ध साहित्य में सर्वार्थसिद्धि प्रथम टीका है जो तत्वर्षिसत्र पर लिखी
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