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सर्वार्थसिद्धि
वे तत्त्वार्थको स्वतन्त्र ग्रन्थ मानकर उसका अधिगम करानेवाले भाष्यको तत्त्वार्थाधिगम अर्हत्प्रवचनसंग्रह' कह रहे हैं। स्पष्ट है कि तत्त्वार्थाधिगम यह नाम तत्त्वार्थसूत्र का न हो कर वाचक उमास्वातिकृत उसके भाष्यका है।
दो सूत्र-पाठ-प्रस्तुत ग्रन्थ के दो सूत्र-पाठ उपलब्ध होते हैं-एक दिगम्बर परम्परा मान्य और दूसरा श्वेताम्बर परम्परा मान्य । सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्यकी रचना होनेके पूर्व मूल सूत्रपाठका क्या स्वरूप था, इसका विचार यथास्थान हम आगे करेंगे। यहाँ इन दोनों सूत्रपाठोंका सामान्य परिचय कराना मुख्य प्रयोजन है।
दिगम्बर परम्पराके अनुसार दसों अध्यायोंकी सूत्र संख्या इस प्रकार है--- 33+53+ 39+42+ 42+27+39+26+47+9-357 ।। श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार दसों अध्यायोंकी सूत्र संख्या इस प्रकार है35+52+18+53+44+26+34-+-26+49+7-3441
प्रथम अध्यायमें ऐसे पाँच स्थल मुख्य हैं जहाँ दोनों सूत्र पाठोंमें मौलिक अन्तर दिखाई देता है। प्रथम स्थल मतिज्ञानके चार भेदोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा अवाय' पाठको और श्वेताम्बर परम्परा अपाय' पाठको स्वीकार करती है। प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी श्वेताम्बर परम्परामान्य तत्त्वार्थसूत्रका विवेचन करते हुए भी मुख्यरूपसे 'अवाय' पाठको ही स्वीकार करते हैं। दूसरा स्थल मतिज्ञानके विषयभून 12 पदार्थाका प्रतिपादक सूत्र. है। इसमें दिगम्बर परम्परा क्षिपके बाद 'अनिसृतानुक्त---' पाठको और श्वेताम्बर परम्परा अनिश्रितासन्दिग्ध-' पाठको स्वीकार करती है। यहाँ पाठभेदके कारण अर्थभेद स्पष्ट है। तीसरा स्थल 'द्विविधोऽवधि:' सूत्र है। इसे श्वेताम्बर परम्परा सूत्र मानती है जब कि सर्वार्थ सिद्धि में यह भवप्रत्ययोऽवधिवनारकाणाम्' सूत्रकी उत्थानिकाका अंश है। चौथा स्थल अवधिज्ञानके द्वितीय भेदका प्रतिपादक सूत्र है । इसमें दिगम्बर परम्परा क्षयोपशम निमित्तः' पाठको और श्वेताम्बर परम्परा यथोक्तनिमित्तः' पाठको स्वीकार करती है। पाँचवाँ स्थल सात नयोंका प्रतिपादक सूत्र है। यहाँ दिगम्बर परम्परा सातों नयोंको मूल मानकर उनका समान रूपसे उल्लेख करती है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा मूल नय पांच मानती है और नैगम व शब्दनयके क्रमश: दो व तीन भेदोंका स्वतन्त्र सूत्र द्वारा उल्लेख करती है । साधारणतः दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परामें मूल नय सात माने गये हैं और आगम साहित्यमें इनका मूल नयके रूप में उल्लेख भी किया है। पर जहाँ नामादि निक्षेपोंमेंसे कौन नय किस निक्षेपको स्वीकार करता है इसका विचार किया जाता है वहाँ बहुधा नैगमादि पाँच नयोंका भी उल्लेख किया जाता है। बहुत सम्भव है कि इस परिपाटीको देखकर वाचक उमास्वातिने पाँच नय मूल माने हों तो कोई आश्चर्य नहीं।
दूसरे अध्यायमें ऐसे नी स्थल हैं। प्रथम स्थल पारिणामिक भावोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें पारिणामिक भावके तीन नाम गिनाने के बाद श्वेताम्बर परम्परा आदि पदको स्वीकार करती है जब कि दिगम्बर परम्परा इसे स्वीकार नहीं करती। यहां जीवका स्वतत्त्व क्या है यह बतलाते हुए पारिणामिक भावों का उल्लेख किया है। दिगम्बर परम्परा अन्य द्रव्य साधारण पारिणामिक भावोंकी यहाँ मुख्य रूपसे गणना नहीं करती और श्वेताम्बर परम्परा करती है यही यहाँ उसके आदि पद देनेका प्रयोजन है। दूसरा स्थल स्थावरकायिक जीवोंके भेदोंका प्रतिपादक सूत्र है। आगमिक परिपाटीके अनुसार स्थावरोंके पांच भेद दोनों परम्पराएँ स्वीकार करती हैं और दिगम्बर परम्पर। इसी परिपाटीके अनुसार यहाँ पाँच भेद स्वीकार करती है। किन्तु श्वेताम्बर परम्पराने अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंको गतित्रस मानकर इन का उल्लेख त्रसों के साथ किया है। इस कारण कई सूत्रोंकी रचनामें अन्तर आया है। तीसरा स्थल उपयोगः स्पर्शादिष' सूत्र है। श्वेताम्बर परम्पर। इसे स्वतन्त्र सूत्र मानती है जब कि दिगम्बर परम्परा इसे सूत्र रूपसे
1.देखो, धवला पुस्तक 12 वेदनाप्रत्ययविधान नामक अधिकार। देखो, कषायप्राभूत प्र. पुस्तक परिशिष्ट पृष्ठ 71
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