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सर्वार्थसिद्धि
कागमथुतकी मुख्य भाषा प्राकृत रही है तथा इसके आधारस बारातीय आचार्योंने जो बंगबाह्य श्रुत लिपिबद्ध किया है वह भी प्रायः प्राकृत भाषामें ही लिखा गया है। प्राकृत भाषाके जो विविष्ठ स्थित्यन्तर उपलब्ध होते हैं उनसे इस बातकी पुष्टि होती है कि यह भगवान् महावीर और उनके आगे-पीछे बहुत काल ०क बोलचालको भाषा रही है। पानि, जिसमें कि प्राचीन महत्वपूर्ण वौद्ध साहित्य उपलब्ध होता है, प्राकृतका ही एक भेद है। प्रारम्भसे जैनों और बौद्धोंकी प्रकृति जनताको उनकी भाषामें उपदेश देनेकी रही है। परिणाम स्वरूप इन्होंने अधिकतर साहित्य रचनाका कार्य जनताको भाषा प्राकृतमें ही किया है। किन्तु धीरे-धीरे भारतवर्ष में ब्राह्मण धर्मका प्राबल्य होनेसे और उनकी साहित्यिक भाषा संस्कृत होनेसे बौद्धों और जैनोंको संस्कृत भाषा में भी अपना उपयोगी साहित्य लिखने के लिए बाध्य होना पड़ा है । यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्र जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थकी रचना करते समय वह संस्कृत भाषा में लिखा गया है। जैन परम्परा उपलब्ध साहित्य में संस्कृत भाषामें रचा गया यह सर्वप्रथम ग्रन्थ है । इसके पहले केवल संस्कृत भाषा में जैन साहित्यकी रचना हुई हो इसका कोई निश्चित आधार उपलब्ध नहीं होता । तत्त्वार्थसूत्र लघुकाव सूत्रग्रन्थ होकर भी इसमें प्रमेयका उत्तमताके साथ संकलन हुआ है। इस कारण इसे जैन परम्परा के सभी सम्प्रदायोंने समान रूपसे अपनाया है । दार्शनिक जगत् में तो इसे रूपाति मिली हो, आध्यात्मिक जगत् में भी इसका कुछ कम आदर नहीं हुआ है । इस दृष्टिसे वैदिकों में गीताका, ईसाइयों में बाइबिलका और मुसलमानोंमें कुरानका जो महत्व है वही महत्व जैन परम्परामें तस्वार्थसूत्रका माना जाता है। अधिकतर जैन इसका प्रतिदिन पाठ करते हैं और कुछ अष्टमी- चतुर्दशी को दशलक्षण पर्व के दिनों में इसके एक-एक अध्याय पर प्रतिदिन प्रवचन होते हैं जिन्हें आम जनता बड़ी अद्धा के साथ श्रवण करती है। इसके सम्बन्धमें ख्याति
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है कि जो कोई गृहस्थ इसका एक बार पाठ करता है उसे एक उपवासका फल मिलता है ।
नाम प्रस्तुत सूत्रग्रन्यका मुख्य नाम तत्त्वार्थ' है। इस नामका उल्लेख करनेवाले इसके टीकाकार मुख्य है। इनकी प्रथम टीका सर्वार्थसिद्धिमें प्रत्येक अध्यायको समाप्ति-सूचक पुष्पिकामें यह वाक्य आता है-
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इति तस्यार्थवृत्त, सर्वार्थसिद्धिशिकायां
अध्यायः समाप्तः ।
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इसके अन्त में प्रशंसासूचक तीन श्लोक आते हैं उनमें भी प्रस्तुत टीकाको तस्वार्थवृत्ति कहकर प्रस्तुत ग्रन्थ की 'तत्त्वार्थ' इस नामसे घोषणा की गयी है। तत्त्वार्थवार्तिक और तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिककी भी यही स्थिति है । इन दोनों टीका-ग्रन्थोंके प्रथम मंगल-श्लोकमें और प्रत्येक अध्यायकी समाप्तिसूचक पुष्पिकामें मूल ग्रन्थके इसी नामका उल्लेख मिलता है ।
तत्वार्थ सात हैं-जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष सम्यग्दर्शन के विषयरूपसे इन सात तत्वार्थोंका प्रस्तुत सूत्र ग्रन्थ में विस्तार के साथ निरूपण किया गया है। मालूम पड़ता है कि इसी कारण से इसका तत्वार्थ यह नाम प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ है।
लोकमें इसका एक नाम तत्त्वार्थसूत्र भी प्रचलित है। इस नामका उल्लेख वीरसेन स्वामीने अपनी धवला' नामकी प्रसिद्ध टीकामें किया है। सिद्धसेन गणि भी अपनी टीकामें कुछ अध्यायोंकी समाप्तिसूचक पुष्पिका में इस नामका उल्लेख करते हैं। इसमें जीवादि सात तत्त्वार्थोका सूत्र शैली में विवेचन किया गया है इससे इसका दूसरा नाम तत्त्वार्थसूत्र पड़ा जान पड़ता है। किन्तु पिछले नामसे इस नाममें सूत्र पद अधिक होनेसे सम्भव है कि ये दोनों नाम एक ही हों। केवल प्रयोगकी सुविधा की दृष्टिसे कहीं इसका
1. दमाध्यायपरिच्छन्ने तस्वायें पठिते सति फलं स्वादुपवासस्य भाषितं मुनिपुङ्गवं । 2. तह गिद्धपिछा - इरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्ते वि वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य' इति दव्वकालो पकविदो । जीवस्थानकाल नुयोगद्वार पृ० 316 प्र० सं० 3 इति तस्य सूत्रं माध्यसंयुक्ते भाष्यानुसारिण्यां वाटीकायां आस्रवप्रतिपादनपर पष्ठोऽध्यायः समाप्तः ।
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