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सर्वार्थसिद्धि
इस स्थितिसे इस प्राणीका उद्धार कैसे हो, इस प्रश्नके समाधान स्वरूप साधकोंने अनेक मार्ग दरसाये हैं जिनमें सम्यक् श्रुतका अध्ययन मुख्य है। श्रुत दो प्रकारका है-एक वह जो ऐहिक इच्छाओंकी पूर्तिका मार्गदर्शन करता है और दूसरा वह जो विषय और कषायके मार्गको अनुपादेय बतला कर आत्महितके मार्गमें लगाता है । आत्माका हित क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर यदि हमें संक्षेप में प्राप्त करना है तो यही कहा जा सकता है कि 'मोक्ष'। अतएव मोक्षप्राप्तिके साधनोंका जिसमें सम्यक प्रकारसे ऊहापोह किया गया है वही शास्त्र सम्यक् श्रुत कहलानेकी पात्रता रखता है।
इस दृष्टि से जब हम प्राचीन साहित्यको देखते हैं तो सर्वप्रथम हमारी दृष्टि द्वादशांग श्रुत पर जाती है। इसका सीधा सम्बन्ध भगवान् महावीरकी वाणीसे है। यह तथ्य है कि जितने भी तीर्थङ्कर होते हैं वे अर्थका उपदेश देते हैं और उनके प्रमुख शिष्य, जिन्हें कि गणधर कहते हैं, ग्रन्थ रूपमें अङ्गश्रुतकी रचना करते हैं। यह मुख्य रूपसे बारह आरों-विभागों में विभक्त होने के कारण इसे द्वादशार कहते हैं और संघके मुख्य अधिपति गणधरों-गणियोंके द्वारा इसकी रचना की जानेसे इसका दूसरा नाम गणिपिटक भी है।
भगवान् महावीरके मोक्ष जानेके बाद तीन अनुबद्ध केवली और पाँच श्रुतकेवली हुए हैं। इनमें अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु थे । इन तक यह अङ्गश्रुत अपने मूलरूपमें आया है। इसके बाद उत्तरोत्तर बुद्धिबल और धारणाशक्तिके क्षीण होते जानेसे तथा पुस्तकारूढ़ किये जानेकी परिपाटी न होने से क्रमश: वह विच्छिन्न होता गया है। इस प्रकार एक ओर जहाँ अंगश्रुतका अभाव होता जा रहा था वहाँ दूसरी ओर श्रुतपरम्पराको अविच्छिन्न बनाये रखनेके लिए और उसका सीधा सम्बन्ध भगवान् महावीरकी वाणीसे बनाये रखनेके लिए प्रयत्न भी होते रहे हैं। अंगश्रुतके गद दूसरा स्थान अनंगश्रुतको मिलता है। इसको अंगबाह्य भी कहते हैं। इसके मूल भेद ये हैं-सामायिक, चतुविशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वनयिक, कृतिकर्म, दशवकालिक उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्विका। इनमें से सर्वार्थसिद्धि में उत्तराध्ययन और दशवकालिक केवल इन दो का ही उल्लेख किया है। श्री धवला टीकाके आधारसे विदित होता है कि इनकी रचना भी गणधरोंने ही की थी और अंगश्रुतके अस्तित्वकालमें ये उपस्थित थे। किन्तु धीरे-धीरे अंगश्रुतके समान इनको भी धारण करने की शक्तिवाले श्रमणोंके न रहनेसे इनका भी अभाव होता गया। फल यह हुआ कि एक प्रकारसे हम मूलश्रुतसे सर्वथा वंचित श्वेताम्बर परम्परामें जो आचारांग आदि अंगश्रुत और उत्तराध्ययन आदि अनंगश्रुत उपलब्ध होता है वह विक्रम की पांचवीं शताब्दिके बादका संकलन है, इसलिए वह मूलश्रुतकी दृष्टिसे विशेष प्रयोजनीय नहीं माना
जा सकता। इस प्रकार अंगश्रुत और अंगबाह्यश्रुतके विच्छिन्न होने में कुल 683 वर्ष लगे हैं। . किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उत्तरकालमें भगवान महावीर की वाणीका कहिए या द्वादशांग वाणीका कहिए वारसा हमें किसी रूप में मिला ही नहीं। भद्रबाहु श्रुतकेवलीके कालमें ही जैन परम्परा दो 'भागोंमें विभाजित हो गयी थी। पहली परम्परा जो भगवान् महावीर और उनके पूर्ववर्ती तीर्थङ्करोंके तत्त्वज्ञानमूलक आचारको बिना किसी संशोधनके ग्राह्य मानती रही वह उस समय दिगम्बर परम्परा या मूल मंचके नामसे प्रसिद्ध हुई और जिसने परिस्थितिवश संशोधन कर उसमें नये आचारका प्रवेश किया वह प्रवेताम्बर परम्पराके नामसे प्रसिद्ध हुई । इस कारण मूल अंगश्रुत और अनंगश्रुतको तो लिपिबद्ध नहीं किया जा सका, किन्तु कालान्तरमें ऐसे आचार्य हुए हैं जिन्होंने अङ्गश्रुतके आश्रयसे श्रुतकी रक्षा करनेका प्रयत्न किया है। षट्खण्डागम और कषायप्राभृतकी रचना उन प्रयत्नोंमेंसे सर्वप्रथम है । आचार्य कुन्दकुन्द लगभग उसी समय हुए हैं जिन्होंने अपनी आध्यात्मिक शैली द्वारा जीवादि तत्त्वोंका और मोक्षमार्गके अनुरूप आचारका विचार करते हुए न केवल तीर्थङ्करोंके स्वावलम्बी मार्गकी रक्षा करनेका प्रयत्न किया है, अपितु उसमें बहुत कुछ अंशमें स्थिरता भी लायी है। इस तरह आरातीय आचार्यों द्वारा मूल श्रुतके अनुरूप श्रुतका निर्माण कर उसकी रक्षाके अनेक प्रयत्न हुए हैं। अखिल जैन परम्परामें रचनाकी दृष्टिसे जिस श्रुतकी सर्वप्रथम गणना की जा सकती है उसका संक्षेपमें विवरण इस प्रकार है
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