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प्रस्तावना
प्रन्थ नाम षट्खण्डागम
कर्ता आ० पुष्पदन्त भूतबलि
रचनाकाल विक्रमकी दूसरी शताब्दी या इसके
पूर्व
कषायप्राभृत आ० गुणधर
समकालीन कषायप्राभृत की चूणि आ० यतिवृषभः आचार्य गुणधरके कुछ काल बाद समयप्राभृत, प्रवचनसारप्राभृत आ० कुन्दकुन्द' विक्रमकी पहली-दूसरी शताब्दी पञ्चास्तिकायप्राभूत, नियमसार व अष्टप्राभृत मूलाचार (आचारांग) आ० वट्टकेर
आ० कुन्दकुन्दके समकालीन मूलाराधना (भगवतीआराधना) आ० शिवार्य तत्त्वार्थसूत्र
आ० गृद्धपिच्छि
आ० कुन्दकुन्दके समकालीन या
कुछ काल बाद रत्नकरण्डश्रावकाचार
आ० समन्तभद्र
आ० कुन्दकुन्दके कुछ काल बाद इसके बाद भी श्रुतरक्षाके अनेक प्रयत्न हुए हैं। श्वेताम्बर अंगश्रुतका संकलन उन प्रयत्नों में से एक है। यह विक्रम की 6वीं शताब्दी में संकलित होकर पुस्तकारूढ़ हुआ था।
1. तत्त्वार्थसूत्र इनमें से प्रकृतमें तत्त्वार्थसूत्रका विचार करना है। यह जैन दर्शनका प्रमुख ग्रन्थ है। इसमें जैनाचार और जैन तत्त्वज्ञानके सभी पहलुओं पर सूत्र शैलीमें विचार किया गया है। यह सुनिश्चित है कि जैन
1. इनके समयके विषय में बड़ा विवाद है। वीरसेन स्वामीने इन्हें वाचक आर्यमंक्षु और नागहस्तिका शिष्य लिखा है। इन दोनोंका श्वेताम्बर पट्टावलियोंमें उल्लेख आता है। सम्भवतः ये और श्वेताम्बर परम्परामें उल्लिखित आर्यमा और नागहस्ति अभिन्न व्यक्ति हैं और वे ही आ० यतिवृषभके गुरु प्रतीत होते हैं। जीवस्थान क्षेत्रप्रमाणानुगमकी धवला टीका में आचार्य वीरसेनने जिस तिलोयपण्णत्तिका उल्लेख किया है वह वर्तमान तिलोयपण्णत्तिसे भिन्न ग्रन्थ है। यह हो सकता है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्तिमें उसका कुछ भाग सम्मिलित कर लिया गया हो पर इससे दोनोंकी अभिन्नता सिद्ध नहीं होती। पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तारने पुरातन जैन वाक्यसूचीकी प्रस्तावनामें जैनसिद्धान्त भास्करके एक अंकमें प्रकाशित मेरे लेखका खण्डन करते हुए जो वर्तमान तिलोयपण्णत्तिकी प्राचीन तिलोयपण्णत्तिसे अभिन्नता सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है वह उनका उचित प्रयत्न नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वर्तमान तिलोयपण्णत्तिमें लोकके जिस आकारकी चर्चा की गयी है उसका प्राचीन तिलोयपण्ण त्तिमें उल्लेख नहीं है और इस आधारसे यह मानना सर्वथा उचित प्रतीत होता है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्तिके आधारसे जो राजकाल गणनाके बाद आचार्य यतिवृषभकी स्थिति मानी जाती है वह भी उचित नहीं है। इसके लिए पहले यह सिद्ध करना होगा कि इस राजकाल गणनाका उल्लेख प्राचीन तिलोयपण्णत्तिमें भी पाया जाता है तभी यह मान्यता समीचीन ठहर सकेगी कि आचार्य यतिवृषभ महावीर संवत्से हजार वर्ष बाद हुए हैं। तत्काल धवलाके उल्लेखके अनुसार आचार्य यतिवृषभको महावाचक आर्यमंक्षु और नागहस्तिका शिष्य होने के नाते उन्हें उस समयका ही मानना चाहिए जिस समय उन दो महान् आचार्योंने इस भूमण्डलको अलंकृत किया था। 2. इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें षट्खण्डागम पर आ० कुन्दकुन्दकी टीका का भी उल्लेख किया है । इस आधारसे षट्खण्डागमका रचनाकाल प्रथम शताब्दीसे भी पूर्व ठहरता है। अधिकतर विचारक 683 वर्ष की परम्पराके बाद इन ग्रन्थोंको स्थान देते हैं, किन्तु मेरे विचारसे श्रतकी परम्परा किस क्रमसे आयी इतना मात्र दिखाना उसका प्रयोजन है। षट्खण्डागम आदिके रचयिता 683 वर्ष पूर्व हुए हों तो इसमें कोई प्रत्यवाय नहीं है ।
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