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केवल 'तत्त्वार्थ' इस नामसे और कहीं सत्त्वार्थसूत्र' इस नामसे उल्लेख किया जाता रहा हो। किसी वस्तुका जो नाम होता है उसके एकदेशका उल्लेख करके भी उस वस्तुका बोध कराने की परिपाटी पुरानी है। बहुत सम्भव है कि इसी कारण इसका तत्त्वार्य' यह नाम भी प्रसिद्धिमें आया हो। सिद्धसेन गणिने इसका तत्त्वार्थसूत्र और तस्वार्थ इन दोनों नामोंके द्वारा उल्लेख किया है। इससे भी ये दोनों नाम एक ही हैं इस अर्थकी पुष्टि होती है।
प्रस्तावना
इसका एक नाम मोक्षशास्त्र भी है। मोक्षशास्त्र इस नामका उल्लेख प्राचीन टीकाकारों या अन्य किसीने किया है ऐसा हमारे देखने नहीं आया। तथापि लोकमें इस नामकी अधिक प्रसिद्धि देखी जाती है । तत्वार्थसूत्रका प्रारम्भ मोक्षमार्गके उपदेशसे होकर इसका अन्त मोक्षके उपदेशके साथ होता है । जान पड़ता है कि यह नाम इसी कारणसे अधिक प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ है ।
सर्वार्थ सिद्धि के बाद इसकी दूसरी महत्वपूर्ण टीका तत्त्वार्थभाध्य माना जाता है। इसकी उत्थानिकामें यह श्लोक आता है
'तत्त्वार्थाभिगमास्यं बर्ष संग्रहं लघुप्रम्यम् । वक्ष्यामि शिष्यहितमिममद्र वनकदेशस्य ॥ 2 ॥ '
अर्थात् बहुत अर्थवाले और अपन के एक देशके संग्रहरूप तत्त्वार्थाधिगम नाम के इस लघु ग्रन्थका मैं शिष्य - हितबुद्धि से कथन करता हूँ ।
तत्वार्थभाष्य के अन्तमें जो प्रशस्ति उपलब्ध होती है। उसमें भी तत्त्वार्थाधिगम इस नामका उल्लेख किया है। इस आधारसे यह कहा जाता है कि इसका मुख्य नाम तत्त्वार्थाधिगम है ।
किन्तु इस आधार के होते हुए भी मूल सूत्र ग्रन्थका यह नाम है इसमें हमें सन्देह है, क्योंकि एक तो ये उस्थानिका के श्लोक और भाध्यके अन्त में पायी जानेवाली प्रशस्ति मूल सूष ग्रन्थ के अंग न होकर मायके जंग है और भाष्य सूत्ररचनाके बाद की कृति है। दूसरे तत्वार्यसूत्र के साथ जो भाष्य की स्वतन्त्र प्रति उपलब्ध होती है उसमें प्रत्येक अध्याय की समाप्ति सूचक पुष्पिकासे यह विदित नहीं होता कि याचक उमास्वाति तत्त्वार्थ भाष्यको तत्त्वार्थाधिगमसे भिन्न मानते हैं । प्रथम अध्यायके अन्त में पायी जानेवाली पुष्पिकाका स्वरूप इस प्रकार है
इति तस्वार्थाधिगमेऽर्हत्प्रवचन संग्रहे प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।
साधारणत: यदि किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ के अध्यायकी समाप्ति-सूचक पुष्पिका लिखी जाती है तो उसमें केवल मूल ग्रन्थका नामोल्लेख कर अध्यायकी समाप्तिकी सूचना दी जाती है और यदि टीकाके साथ अध्यायकी समाप्ति की सूचक पुष्पिका लिखी जाती है तो उसमें मूल ग्रन्थका नामोल्लेख करने के बाद अथवा बिना किये ही टीकाका उल्लेख कर अध्याय की समाप्ति की सूचक पुष्पिका लिखी जाती है । उदाहरणार्थ केवल तत्त्वार्थ सूत्र के अध्यायकी समाप्तिकी सूचक पुष्पिका इस प्रकार उपलब्ध होती हैइति तस्यार्थसूत्रे प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।
तथा टीकाके साथ तत्त्वायंसूत्रकी समाप्ति की सूचक पुष्पिका का स्वरूप इस प्रकार हैइति तत्त्वार्थवृत्तौ सर्वार्थसिद्धिसंज्ञकायां प्रथमोऽध्यायः समाप्तः ।
यहाँ पूज्यपाद स्वामीने तत्त्वार्थसूत्रका स्वतन्त्र नामोल्लेख किये बिना केवल अपनी तत्त्वार्थं पर लिखी गयी वृत्तिका उसके नाम के साथ उल्लेख किया है। इससे इस बात का स्पष्ट ज्ञान होता है कि तत्त्वार्थ नामका एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है और उस पर लिखा गया यह वृत्तिग्रन्थ है । बहुत संभव है कि प्रत्येक अध्याय की समाप्ति सूचक पुष्पिका लिखते समय यही स्थिति वाचक उमास्वातिके सामने रही है । इस द्वारा
1. देखो, सिद्धसेन गणि टीका अध्याय एक और छहकी अन्तिम पुचिका 2. देखो, रतलामकी सेठ ऋषभदेवजी केशरीमलजी जैन श्वेताम्बर संस्था द्वारा प्रकाशित तत्वार्थभाव्य प्रति
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