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प्रस्तावना
स्वीकार नहीं करती। उसके मतसे उपयोगके विषयका अलगसे प्रतिपादन करना वांछनीय नहीं, क्योंकि प्रत्येक ज्ञानका विषय प्रथम अध्यायमें दिखा आये हैं। चौथा स्थल 'एकसमयाऽविग्रहा' सूत्र है। गतिका प्रकरण होनेसे दिगम्बर परम्परा इस सूत्रको इसी रूप में स्वीकार करती है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा एक समयको विष्य मानकर यहाँ पुल्लिग एक वचनान्तका प्रयोग करती है। पांचवां स्थल जन्मका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा पोत' पदको और श्वेताम्बर परम्परा पोतज' पदको स्वीकार करती है। छठा स्थल 'तैजसमपि' सूत्र है। इसे दिगम्बर परम्परा सूत्र मानती है और श्वेताम्बर परम्परा नहीं मानती । यहाँ निमित्तज सभी शरीरों की उत्पत्तिके कारणोंका विचार सूत्रोंमें किया गया है फिर भी श्वेताम्बर परम्परा इसे सूत्र रूपमें स्वीकार नहीं करती और इसे तत्त्वार्थभाष्यका अङ्ग मान लेती है । सातवां स्थल आहारक शरीरका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्पराके 'प्रमत्तसंयतस्यैव' पाठके स्थान में श्वेताम्बर परम्परा 'चतुर्दशपूर्वधरस्यव' पाठ स्वीकार करती है । आठवाँ स्थल शेषास्त्रिवेदाः' सूत्र है। इसे दिगम्बर परम्परा स्वतन्त्र सूत्र मानती है जब कि श्वेताम्बर परम्परा इसे परिशेष न्यायका आश्रय लेकर सूत्र माननेसे अस्वीकार करती है । नौवाँ स्थल अनपवर्त्य आयुवालों का प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्पराके 'चरमोत्तमदेह' पाठके स्थान में श्वेताम्बर परम्परा 'चरमदेहोत्तमपुरुष' पाठको स्वीकार करती है।
तीसरे अध्यायमें ऐसे तीन स्थल हैं। प्रथम स्थल पहला सूत्र है। इसमें अधोऽध:' के अनन्तर श्वेताम्बर परम्परा 'पृथुतरा:' पाठको अधिक स्वीकार करती है । दूसरा स्थल दूसरा सूत्र है। इसमें आये हुए 'नारकाः' पदको श्वेताम्बर परम्परा स्वीकार न कर तासु नरकाः' स्वतंत्र सूत्र मानती है। यहाँ इन द्वितीयादि चार सूत्रों में नारकोंकी अवस्थाका चित्रण किया गया है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वह सब नरकों-आवासस्थानोंकी अवस्था का चित्रण हो जाता है। तीसरा स्थल ग्यारहवें सूत्रसे आगे 21 सूत्रोंकी स्वीकृति और अस्वीकृतिका है। इनको दिगम्बर परम्परा सूत्र रूप में स्वीकार करती है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा इन्हें सूत्र नहीं मानती ।
चौथे अध्याय में ऐसे कई स्थल हैं। प्रथम मतभेदका स्थल दूसर। सूत्र है। इस सूत्र को दिगम्बर परम्परा आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्या:' इस रूपमें और श्वेताम्बर परम्परा तृतीयः पीतलेश्यः' इस रूपमें स्वीकार करती है। श्वेताम्बर साहित्य में ज्योतिषियोंके एक पीतलेश्या कही है। इसीसे यह सूत्र विषयक मतभेद हुआ है और इसी कारण श्वेताम्बर परम्पराने सातवें नम्बरका पीलान्तलेश्याः' स्वतंत्र सूत्र माना है । दूसरा स्थल शेष कल्पों में प्रवीचारका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें श्वेताम्बर परम्परा 'द्वयोर्द्वयोः' पदको अधिक रूपमें स्वीकार करती है। इसके फलस्वरूप उसे आनतादि चार कल्पोंको दो मानकर चलना पड़ता है । तीसरा स्थल कल्पोंका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्पराने सोलह और श्वेताम्बर परम्परा ने बारह कल्पोंका नामोल्लेख किया है । चौथा स्थल लौकान्तिक देवोंकी संख्याका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्पराने आठ प्रकारके और श्वेताम्बर परम्पराने नौ प्रकारके लौकान्तिक देव गिनाये हैं। 'इतना होते हुए भी तत्त्वार्थभाष्य में वे आठ प्रकारके ही रह जाते हैं । औपपादिकमनुष्येभ्यः' इत्यादि सूत्रके आगे इस अध्यायमें दोनों परम्परा के सूत्रपाठमें पर्याप्त अन्तर है। ऐसे अनेक सूत्र श्वेताम्बर परम्परामान्य सूत्रपाठमें स्थान पाते हैं जिनका दिगम्बर परम्परामें सर्वथा अभाव है। कुछ ऐसे भी सूत्र हैं जिनके विषय में दिगम्बर परम्परा एक पाठ स्वीकार करती है और श्वेताम्बर परम्परा दूसरा पाठ। इस सब अन्तरके कई कारण हैं। एक तो कल्पोंकी संख्यामें अन्तरको स्वीकार करनेसे ऐसा हुआ है। दूसरे भवनवासी और ज्योतिषी देवोंकी स्थितिके प्रतिपादन में श्वेताम्बर परम्पराने भिन्न रुख स्वीकार किया है, इससे ऐसा हुआ है। लौकान्तिक देवोंकी स्थितिका प्रतिपादक सूत्र भी इस परम्पराने स्वीकार नहीं किया है।
पांचवें अध्यायमें ऐसे छह स्थल हैं। प्रथम स्थल 'द्रव्याणि' और 'जीवाश्च' ये दो सूत्र हैं। दिगम्बर परम्परा इन्हें दो सूत्र मानती है जब कि श्वेताम्बर परम्परा इनका एक सूत्ररूपसे उल्लेख करती है। दूसरा स्थल धर्मादि द्रव्योंके प्रदेशोंकी संख्याका प्रतिपादक सूत्र है। इसमें दिगम्बर परम्परा धर्म, अधर्म और एक
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