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प्रस्तावना (प्रथम संस्करण से)
'मैं कौन हूँ, मेरा स्वभाव क्या है, मैं कहाँ से आया हूँ, मुझे उपादेय क्या है और उसकी प्राप्ति कैसे होती है ? जो मनुष्य इन बातोंका विचार नहीं करता वह अपने गन्तव्य स्थानको प्राप्त करनेमें समर्थ नहीं होता।
आचार्य वादीसिंहने क्षत्रचड़ामणिमें तत्त्वज्ञानके प्रसंगसे यह वचन कहा है। यह मनुष्यके कर्तव्यका स्पष्ट बोध कराता है। कर्तव्यका विचार ही जीवनका सार है। जो तिर्यञ्च हैं वे भी अपने कर्तव्यका विचार कर प्रवृत्ति करते हैं फिर मनुष्यको तो कथा ही अलग है।
प्रत्येक प्राणीके जीवन में हम ऐसे-ऐसे विलक्षण परिणमन देखते हैं जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐसा क्यों होता है ? क्या इसके लिए केवल बाह्य परिस्थिति ही एकमात्र कारण है ? एक पिताके दो बालक होते हैं। उनका एक प्रकारसे लालन-पालन होता है। एक पाठशालामें उन्हें शिक्षा मिलती है फिर भी उनके शील-स्वभाव में विलक्षण अन्तर होता है। क्यों? इसका शारीरिक रचनाके सिवा कोई अज्ञात कारण अवश्य होना चाहिए। साधकोंने इस प्रश्न का गहरा मन्थन किया है। उत्तरस्वरूप उन्होंने विश्वको यही अनुभव दिया है कि जीवगत योग्यताके अनुसार पुराकृत कर्मों के कारण प्राणियोंके जीवन में इस प्रकारकी विविधता दिखाई देती है।
विश्वकी विविधताका अवलोकन कर उन्होंने कहा है कि इस प्राणीकी प्रथम अवस्था निगोद है। अनादि कालसे यह प्राणी इस अवस्थाका पात्र बना हुआ है। विस्तृत बालुकाराशिमें गिरे हुए वज सिकताकण का मिलना जितना दुर्लभ है, इस पर्यायसे निकल कर अन्य पर्यायका प्राप्त होना उतना ही दुर्लभ है। अन्य पर्यायोंकी भी कोई गिनती नहीं। उनमें परिभ्रमण करते हुए इसका पञ्चेन्द्रिय होना इतना दुर्लभ है जितना कि अन्य सब गुणोंके प्राप्त हो जाने पर भी मनुष्यको कृतज्ञता गुणका प्राप्त होना दुर्लभ है । यदि यह पञ्चेन्द्रिय भी हो जाता है तो भी इससे इसका विशेष लाभ नहीं, क्योंकि एक मनुष्य पर्याय ही वह अवस्था है, जिसे प्राप्त कर यह अपनी उन्नतिके सब साधन जुटा सकता है। किन्तु इसका प्राप्त होना बहुत ही कठिन है। एक दृष्टान्त द्वारा साधकोंने इसे इन शब्दों में व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार किसी चौपथ पर रखी हुई रत्नराशिका मिलना दुर्लभ है उसी प्रकार अन्य पर्यायों में परिभ्रमण करते हुए इसे मनुष्य पर्यायका मिलना दुर्लभ है। कदाचित् इसे मनुष्य पर्याय भी मिल जाती है तो भी उसे प्राप्त कर अपने कर्तव्याकर्तब्यके बोध द्वारा कर्तव्यके मार्गका अनुसरण करना और भी दुर्लभ है।
मनुष्य होने पर यह प्राणी नहीं मालूम कितनी ममताओंमें उलझा रहता है । कभी यह पुत्र, स्त्री और घर-द्वारकी चिन्ता करता है तो कभी अपनी मानप्रतिष्ठाको चिन्तामें काल-यापन करता है। स्वरूप सम्बोधन की ओर इसका मन यत्किञ्चित् भी आकर्षित नहीं होता । जो इसका नहीं उसकी तो चिन्ता करता है और जो इसका है उसकी ओर आँख उठाकर देखता भी नहीं। फल यह होता है कि यह न दुलभ इस मनुष्य पर्यायको गर्वा बैठता है अपितु सम्यक् कर्तव्यका बोध न होने से इसे पुनः अनन्त यातनाओंका पात्र बनना पड़ता है।
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