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दो शब्द
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तो यह है कि उस महावृक्ष की हर एक शाखा-प्रशाखा तथा दूसरे अवयव अपने-अपने स्थानमें उचित कार्य कर रहे हैं, या नहीं। नाम रूपका आग्रह जैन परम्पराको न कभी इष्ट रहा है और न रहना चाहिए। केवल व्यवहारके संचालन हेतु इसको स्थान दिया जाता है। इसलिए सर्वार्थसिद्धिका प्रकाशन क्या वर्णी ग्रन्थमालासे हुआ, क्या भारतीय ज्ञानपीठसे दोनों चीजें एक हैं।
7. प्राभार प्रदर्शन फिर भी यहाँ कई दृष्टियोंसे हमें अपने सहयोगियों, मित्रों व हितैषियोंके प्रति आभारस्वरूप दो शब्द अंकित कर देना अत्यावश्यक प्रतीत होता है। यह एक निश्चित सी बात है कि जैन समाजका ध्यान जैन साहित्यके प्रकाशनकी ओर अभी उतना नहीं गया है जितना कि जाना चाहिए था। प्राचीन कालमें मन्दिर प्रतिष्ठा और शास्त्रों को लिपिबद्ध कराकर यत्र तत्र प्रतिष्ठित करना ये दोनों कार्य समान माने जाते थे। अभी तक शास्त्रोंकी रक्षा इसी पद्धतिसे होती आयी है। हमारे पूर्वज चाहे उन शास्त्रोंके ज्ञाता हों चाहे न हों किन्तु वे शास्त्रों की प्रतिलिपि करा कर उनकी रक्षा करना अपना पुनीत कर्तव्य समझते थे और इस कार्यमें प्रयत्नशील भी रहते थे, किन्तु जबसे मुद्रण कार्य प्रारम्भ हुआ है तबसे एक तरहसे समाजने इस ओरसे अपनी आँख ही मुंद ली है। अब प्रतिलिपि कराना तो दूर रहा वे उनकी एक-एक मुद्रित प्रति निछावर देकर खरीदनेमें भी हिचकिचाने लगे हैं। इस मद में व्यक्तिगत खर्च करनेकी बातको तो छोड़ो, वे सार्वजनिक धनसे भी यह कार्य सम्पन्न नहीं करना चाहते हैं जब कि वे इस धनका उपयोग दुसरे दिखावटी और अस्थायी कार्यों में करते रहते हैं। उनका तर्क है कि इतने बड़े ग्रन्थोंको हमारे यहाँ समझनेवाला ही कौन है? हम उनको मन्दिरमें रखकर क्या करेंगे? यदि इसी तर्कसे प्राचीन पुरुषोंने काम लिया होता तो क्या साहित्यकी रक्षा होना सम्भव था? यह कहना तो कठिन है कि हमने अपना पूरा साहित्य बचा लिया है। तथापि जो कुछ भी बचा लिया गया है वह पर्याप्त है। भगवान महावीरकी चर्या और उनके उपदेशोंसे सीधा सम्बन्ध स्थापित करनेकी क्षमता रखनेवाला एकमात्र साधन यह साहित्य ही है। इसलिए प्रत्येक गृहस्थका यह कर्तव्य हो जाता है कि वह इसकी संरक्षाके लिए हर एक सम्भव उपाय काममें लावें।
प्रसन्नता है कि इस ओर भारतीय ज्ञानपीठके संस्थापक व दूसरे कार्यकर्ताओंका पर्याप्त ध्यान गया है और वे इस बातका विचार किये बिना कि इसके प्रकाशन आदि पर पड़नेवाला व्यय वापस होगा या नहीं, सब प्रकारके प्राचीन साहित्यके प्रकाशनमें दत्तावधान हैं। सर्वार्थसिद्धिका भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित होना उनकी इसी शुभ भावनाका सुफल है, इसलिए सर्वप्रथम हम नम्र शब्दोंमें उनके प्रति आभार प्रदर्शित करना अपना कर्तव्य मानते हैं। सर्वार्थसिद्धिके सम्पादक होने के नाते तो हमें यह कार्य करना ही है, साथ ही वर्णी ग्रन्थमालाके संचालक होने के नाते भी हमें इसका निर्वाह करना है।
श्री ग. वर्णी जैन ग्रन्थमाला एक ऐसी संस्था है जिसे समाजके लब्धप्रतिष्ठ विद्वानोंका पृष्ठबल प्राप्त है इसलिए सर्वार्थसिद्धिका उस द्वारा प्रकाशित हो जाना कठिन कार्य नहीं था फिर भी जो कठिन परिस्थिति उसके सामने थी उसे देखते हुए उसने जिस अनुकरणीय मार्गका श्रीगणेश किया है इसके लिए हम वर्णी ग्रन्थमालाकी प्रबन्ध समितिके प्रति भी आभार प्रदर्शित करना अपना कर्तव्य मानते हैं ।
___ यहाँ हम उन महानुभावोंके प्रति भी आभार प्रदर्शित करना अपना कर्तव्य समझते हैं जिन्होंने एक मात्र सर्वार्थसिद्धि के प्रकाशनके प्रति अभिरुचि होनेके कारण अपनी उदार सहायता वर्णी ग्रन्थमाला को दी थी। देनेवाले महानुभाव ये हैं--
1. पूज्य श्री 108 आचार्य सूर्यसागरजी महाराजके सदुपदेशसे श्रीमान् ब्र० लक्ष्मीचन्द्रजी वर्णी । वर्णीजी ने 1500) इस कामके लिए दिल्लीकी पहाड़ी धीरज व डिप्टीगंजकी समाजसे भिजवाये थे ।
2. वर्णी ग्रन्थमालाके कोषाध्यक्ष बाबू रामस्वरूपजी बरुआसागर । आपने इस कामके लिए 1601) प्रदान किये थे।
3. उदारचेता श्रीमान नेमचन्द बालचन्दजी सा. वकील उस्मानाबाद । आपकी पौत्री ब्र० गजराबाई हमारे पास लब्धिसार क्षपणासार पढ़ने बनारस आयी थीं और लगभग दो माह यहाँ रही थीं। इसीके परिणामस्वरूप बहिन गजराबाईकी प्रेरणासे वकील सा० ने 1000) ग्रन्थमालाको प्रदान किये थे।
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