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दो शब्द
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है कि जहां तक बने इसे अधिक परिशुद्ध और परम्परागत आगमके अनुसार मूलग्राही बनाया गया है।
प्रतियोंका परिचय देने के पहले हम इस बातको स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि सर्वार्थसिद्धिको सम्मादित होकर प्रकाशमें आने में आवश्यकतासे अधिक समय लगा है। इतने लम्बे कालके भीतर हमें अनेक बार गहपरिवर्तन करना पड़ा है और भी कई अड़चनें आयी हैं। इस कारण हम अपने सब कागजात सुरक्षित न रख सके । ऐसे कई उपयोगी कागज पत्र हम गँवा बैठे जिनके न रहने से हमारी बड़ी हानि हुई है। उन कागजपत्रोंमें प्रतिपरिचय भी था, इसलिए प्रतियोंका जो पूरा परिचय हमने लिख रखा था वह तो इस समय हमारे सामने नहीं है। वे प्रतियाँ भी हमारे सामने नहीं हैं जिनके आधारसे हमने यह कार्य किया है। फिर भी हमारे मित्र श्रीयुत पं० के० भुजबलिजी शास्त्री मूडबिद्री और पं० दरबारीलालजी न्यायाचार्य दिल्ली की सत्कृपासे उक्त स्थानोंकी प्रतियोंका जो परिचय हमें उपलब्ध हुआ है वह हम यहाँ दे रहे हैं
(1) ता०—यह मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रति है। लिपि कनाडी है । कुल पत्र 116 हैं। इसके प्रत्येक पृष्ठमें पंक्ति 10 और प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर लगभग 71 हैं। प्रति शुद्ध और अच्छी हालत में है। सरस्वती गच्छ, बलात्कार गण कुन्दकुन्दान्वयके आ० वसुन्धरने भाद्रपद कृष्णा प्रतिपदा शालिक शक 1551 विलम्बि संवत्सरके दिन इसकी लिपि समाप्त की थी। हमारे सामने उपस्थित प्रतियों में यह सबसे अधिक प्राचीन थी। इसका संकेताक्षर ता है।
(2) ना०-यह भी मूडबिद्रीकी ताडपत्रीय प्रति हैं। लिपि कनाडी है। कुल पत्र 101 हैं। इसके प्रत्येक पृष्ठमें पंक्ति 9 और प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर लगभग 107 हैं। प्रति शुद्ध और अच्छी अवस्थामें है। इसमें लिपिकर्ता तथा लिपिकालका निर्देश नहीं है। इसका संकेताक्षर ना० है।
(3) दि० 1--यह श्री लाला हरसुखराय सुगनचन्दजीके नये मन्दिरमें स्थित दि० जैन सरस्वती भाण्डार धर्मपुरा दिल्लीकी हस्तलिखित प्रति है। पत्र संख्या 201 है। प्रत्येक पत्र में 18 पंक्ति और प्रत्येक पंक्तिमें लगभग 33 अक्षर हैं। पत्रकी लम्बाई 11 इंच और चौड़ाई 5 इंच है। चारों ओर एक-एक इंच हासिया छोड़कर बीचमें प्रतिलिपि की गयी है। कागज पुष्ट है, अक्षर भी बड़े सुन्दर हैं जो बिना किसी कष्टके आसानीसे पढ़े जाते हैं। लेखनकार्य संवत् 1752 आषाढ़ सुदि ।। गुरुवारको समाप्त हुआ था। प्रतिके अन्तमें यह प्रशस्ति उपलब्ध होती है
'प्रणिपत्य जिनवरेन्द्रं वरविग्रहरूपरंजितसुरेन्द्र । सद्गुणसुधासमुद्रं वक्ष्ये सस्तां प्रशस्तिमहां ।। ।। जगत्सारे हि सारेऽस्मिन्नहिंसाजलसागरे। नगरे नागराकीर्ण विस्तीर्णापणपण्यके ।। 2॥ छ । संवत् 17521 वर्षे आषाढ़ सुदि 11 गुरौ लिषायिताध्यात्मरतपरसाशेषज्ञानावरणीयक्षयार्थ लिखितं ।'
इसका संकेताक्षर दि० 1 है।
(४) दि. 2--यह भी पूर्वोक्त स्थानकी हस्तलिखित प्रति है। पत्र संख्या 111 है। प्रत्येक पत्र में 12 पंक्ति और प्रत्येक पंक्तिमें लगभग 50 अक्षर हैं। मात्र प्रथम और अन्तिम पत्र में पंक्ति संख्या कम है। पत्रकी लम्बाई सवा ग्यारह इंच और चौड़ाई 5 इंच है। अगल-बगल में सवा इंच और ऊपर-नीचे पौन इंच हाँसिया छोड़कर प्रतिलिपि की गयी है। प्रतिके अन्त में आये हुए लेखसे विदित होता है कि यह प्रति सं0 1875 आश्विन वदि 14 मंगलवारको लिखकर समाप्त हुई थी। लेख इस प्रकार है
'संवत् 1875 मासोत्तममासे अश्विनीमासे कृष्णपक्षे तिथौ च शुभ चतुर्दशी भमिवासरेण लिखितं जैसिंहपुरामध्ये पिरागदास मोहाका जैनी भाई।'
__इस प्रतिके देखनेसे विदित होता है कि यह सम्भवतः दि० । के आधारसे ही लिखी गयी होगी। प्रतिकार श्री पिरागदास जी जैन हैं और नरसिंहपुरा (नयी दिल्ली) जिन मन्दिरमें बैठकर यह लिखकर तैयार हुई है। इसका संकेताक्षर दि० 2 है।
इन प्रतियोंके सिवा पांचवीं प्रति श्री जैन सिद्धान्त भवन आरा की है। ये प्रति वाचनके समय उपयोग में ली गयीं है। तथा मुद्रणके समय मध्यप्रदेश सागर जिलाके अन्तर्गत खिमलासा गाँवकी प्रति भी सामने रही है। यह गांव पहले समृद्धिशाली नगर रहा है । यह बीना इटावासे मालथौनको जानेवाली सड़कपर स्थित है और बीना इटावासे लगभग 12 मील दूर है। प्राचीन उल्लेखोंसे विदित होता है कि इसका प्राचीन
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