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दो शब्द
[11 . हमने इस वाक्य पर भी पर्याप्त ऊहापोह कर सब प्रतियोंमें इसका अनुसन्धान किया है। प्रतियोंके मिलान करनेसे ज्ञात हुआ कि यह वाक्य भी सब प्रतियों में नहीं उपलब्ध होता।
इसी प्रकार एक वाक्य 'सत्संख्या'-इत्यादि सूत्रकी व्याख्याके प्रसंगसे लेश्या प्रकरणमें आता है। जो इस प्रकार है
द्वादशभागाः कुतो न लभ्यन्ते, इति चेत् तत्रावस्थितलेश्यापेक्षया पञ्चैव । अथवा येषां मते सासादनएकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया पञ्चैव।'
प्रकरण कृष्ण आदि लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके स्पर्शनका है । तिर्यंच और मनुष्य सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मर कर नरक में नहीं उत्पन्न होते। जो देवगतिमें जाते हैं या देवगतिसे आते हैं उनके कृष्ण आदि अशुभ लेश्याएँ नहीं होती। नरकसे आनेवालोंके कृष्ण आदि अशुभ लेश्याएं और सासादनसम्यग्दर्शन दोनों होते हैं। इसी अपेक्षा यहाँ कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शन क्रमसे कुछ कम पाँच बटे चौदह राजु, कुछ कम चार बटे चौदह राजु और कुछ कम दो बटे चौदह राजु कहा गया है। . यह षट्खण्डागमका अभिमत है । सर्वार्थसिद्धिमें सत्, संख्या और क्षेत्र आदि अनुयोगद्वारोंका निरूपण जीवट्ठाण छक्खंडागमके अनुसार ही किया गया है। कषायप्राभूतका अभिमत इससे भिन्न है। उसके मतसे सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मर कर एकेन्द्रियों में भी उत्पन्न होते हैं। इसलिए इस अपेक्षासे कृष्ण लेश्यामें सासादनसम्यग्दृष्टिका कुछ कम बारह बटे चौदह राजु स्पर्शन भले ही बन जावे, परन्तु षट्खण्डागमके अभिप्रायसे इन लेश्याओं में यह स्पर्शन उपलब्ध नहीं होता।
__हमारे सामने यह प्रश्न था। सर्वार्थसिद्धि में जब भी हमारा ध्यान 'द्वादशभागाः कुतो न लम्यन्ते इत्यादि वाक्य पर जाता था, हम विचारमें पड़ जाते थे। प्रश्न होता था कि यदि सर्वार्थसिद्धिकारको मतभेदकी चर्चा करनी इष्ट थी तो सत्प्ररूपणा आदि दूसरे अनुयोगद्वारोंमें उन्होंने इस मतभेद का निर्देश क्यों नहीं किया? अनेक प्रकारसे इस वाक्य के समाधानकी ओर ध्यान दिया, पर समुचित समाधानके अभावमें चुप रहना पड़ा। यह विचार अवश्य होता था कि यदि सर्वार्थसिद्धिकी प्राचीन प्रतियोंका आश्रय लिया जाय तो सम्भव है उनमें यह वाक्य न हो । हमें यह संकेत करते हुए प्रसन्नता होती है कि हमारी धारणा ठीक निकली। मडबिद्रीसे हमें जो ताडपत्रीय प्रतियाँ उपलब्ध हुईं उनमें यह वाक्य नहीं है। इस आधारसे हम यह निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि यह वाक्य भी सर्वार्थसिद्धिका नहीं है।
सर्व-प्रथम सर्वार्थसिद्धि मूलका मुद्रण कल्लप्पा भरमप्पा निटबेने कोल्हापुरसे किया था । दूसरा मुद्रण श्री मोतीचन्द्र गोतमचन्द्र कोठारी द्वारा सम्पादित होकर सोलापुरसे हुआ है। तथा तीसरी वार श्रीमान् पं० वंशीधरजी सोलापूरवालोंने सम्पादित कर इसे प्रकाशित किया है। पण्डितजी ने इसे सम्पादित करने में पर्याप्त श्रम किया है और अन्य संस्करणों की अपेक्षा यह संस्करण अधिक शुद्ध है । फिर भी जिन महत्त्वपूर्ण शंकास्थलोंकी ओर हमने पाठकोंका ध्यान आकर्षित किया है वे उस संस्करण में भी यथास्थान अवस्थित हैं।
सर्वार्थसिद्धिके नीचे जो टिप्पणियाँ उद्धत की गयी हैं वे भी कई स्थलों पर भ्रमोत्पादक हैं। उदाहरणार्थ कालप्ररूपणामें अनाहारकों में नाना जीवोंकी अपेक्षा सासादनसम्यग्दृष्टियोंका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया गया है । इस पर टिप्पणी करते हुए टिप्पणकार लिखते हैं
आवलिकाया असंख्येयभाग इति--- स च आवलिकाया असंख्येयभागः समयमात्रलक्षणत्वात् एकसमय एव स्यात्, आवल्याः असंख्यातसमयलक्षणत्वात् ।'
इसका तात्पर्य यह है कि वह आवलिका असंख्यातवां भाग एक समय लक्षणवाला होनेसे 'एक समय प्रमाण ही होता है, क्योंकि एक आवलिमें असंख्यात समय होते हैं, अतः उसका असंख्यातवां भाग एक समय ही होगा।
स्पष्ट है कि यदि यहाँ आचार्योंको एक समय काल इष्ट होता तो वे इसका निर्देश 'एक समय' शब्द द्वारा ही करते । जीवस्थान कालानुयोगद्वारमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका जो स्पष्टीकरण किया है उसका भाव यह है कि कई सासादनसम्यग्दृष्टि दो विग्रह करके दो समय तक अनाहारक रहे और तीसरे
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