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सर्वार्थसिद्धि
अपेक्षा कदाचित् ऐसा भेद मान भी लिया जाय तो कर्मशास्त्र के नियमानुसार अशुभ अङ्गोपाङ्गका बन्ध प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें होता है यह इसलिए सम्भव नहीं है क्योंकि स्त्रीवेद सम्बन्धी अशुभ अङ्गोपाङ्गकी बन्धव्युच्छित्ति दूसरे गुणस्थान तक होना ही सम्भव है। इसलिए प्रस्तुत प्रकरण में न तो शाताधर्मकथाकी इस कथाको आधार माना जा सकता है और न ही इस आधारसे श्वेताम्बर टीकाकारोंका यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि 'सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रीवेदियोंमें नहीं उत्पन्न होता यह बाहुल्य की अपेक्षा कहा है।'
इतने विचारके बाद जब हम सर्वार्थसिद्धिके उक्त कथन पर ध्यान देते हैं तो हमें उसमें सन्देह होता है। उसमें तिर्यचिनियोंमें क्षायिक सम्यग्दर्शन न होनेके हेतुका निर्देश किया गया है। यह तो स्पष्ट है कि जो मनुष्य तिर्यंचायुका बन्ध कर सम्यग्दृष्टि हो क्षायिक सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है वह उत्तम भोगभूमिके पुरुषवेदी तिर्यंचोंमें ही उत्पन्न होता है, स्त्रीवेदी तिर्यचों में नहीं। किन्तु इसके समर्थन में जो द्रव्यवेवस्त्रीणां तासां सायिकासंभवात्' यह युक्ति दी गयी है वह न केवल लचर है अपितु भ्रमोत्पादक भी है।
इस युक्तिके आधारसे पूरे वाक्यका यह अर्थ होता है कि तियंच द्रव्यवेदवाली स्त्रियोंमें चूंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन सम्भव नहीं है, इसलिए क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्तम भोगभूमिके तिर्यंच पुरुषोंमें ही उत्पन्न होते हैं । अब थोड़ा बारीकीसे पूरे सन्दर्भ पर विचार कीजिए। जो प्रश्न है, एक तरहसे वही समाधान है। तियंचनियोंमें क्षायिक सम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता इसका विचार करना है। किन्तु उसके उत्तर में इतना कहना पर्याप्त था कि बद्धतियंचाय मनुष्य यदि क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है तो वह मरकर उत्तम भोगभूमिके तियंच पुरुषोंमें ही उत्पन्न होता है ऐसा नियम है। वहाँ समर्थनमें 'द्रव्यवेदस्त्रीणां तासां क्षायिकासंभवात्' इस हेतु कथनकी क्या आवश्यकता थी। इसीको कहते हैं वही प्रश्न और वही उत्तर।
दूसरे यहाँ 'द्रव्यवेदस्त्रीणां यह वाक्यरचना आगम परिपाटीके अनुकूल नहीं है अतएव भ्रमोत्पादक भी है, क्योंकि आगममें तिर्यंच, तियंचनी और मनुष्य, मनुष्यिनी ऐसे भेद करके व्यवस्था की गयी है तथा इन संज्ञाओंका मूल आधार वेद नोकषायका उदय बतलाया गया है।
हमारे सामने यह प्रश्न था । हम बहुत कालसे इस विचारमें थे कि यह वाक्य ग्रन्थका मूलभाग है या कालान्तरमें उसका अंग बना है। तात्त्विक विचारणाके बाद भी इसके निर्णयका मुख्य आधार हस्तलिखित प्राचीन प्रतियां ही थीं। तदनुसार हमने उत्तर भारत और दक्षिण भारतकी प्रतियोंका संकलन कर शंकास्थलोंका मुद्रित प्रतियोंसे मिलान करना प्रारम्भ किया। परिणामस्वरूप हमारी धारणा सही निकली। यद्यपि सव प्रतियों में इस वाक्यका अभाव नहीं है पर उनमेंसे कुछ प्राचीन प्रतियाँ ऐसी भी थीं जिनमें यह वाक्य नहीं उपलब्ध होता है।
इसी सूत्रकी व्याख्या में दूसरा वाक्य 'क्षायिकं पुनर्भाववेदेनैव' मुद्रित हुआ है । यहाँ मनुष्यिनियोंके प्रकरणसे यह वाक्य आता है । बतलाया यह गया है कि पर्याप्त मनुष्यनियोंके ही तीनों सम्यग्दर्शनोंकी प्राप्ति - सम्भव है, अपर्याप्त मनुष्यिनियोंके नहीं। निश्चयतः मनुष्यिनीक क्षायिक सम्यग्दर्शन भाववेदकी मुख्यतासे ही कहा है यह द्योतित करनेके लिए इस वाक्यकी सृष्टि की गयी है।
किन्तु यह तो स्पष्ट ही है कि आगममें 'मनुष्यिनी' पद स्त्रीवेदके उदयवाले मनुष्य गतिके जीवके लिए ही आता है। जो लोकमें नारी, महिला या स्त्री आदि शब्दोंके द्वारा व्यवहृत होता है, आगमके अनुसार मनष्यिनी शब्दका अर्थ उससे भिन्न है। ऐसी अवस्था में उक्त वाक्यको मूलका मान लेने पर मनुष्यनी शब्दके दो अर्थ मानने पड़ते हैं। उसका एक अर्थ तो स्त्रीवेदकी उदयवाली मनुष्यनी होता ही है और दूसरा अर्थ महिला मानना पड़ता है चाहे उसके स्त्रीवेदका उदय हो या न हो।
ऐसी महिलाको भी जिसके स्त्रीवेदका उदय होता है मनुष्यनी कहा जा सकता है और उसके क्षायिक सम्यग्दर्शनका निषेध करनेके लिए यह वाक्य आया है, यदि यह कहा जाय तो इस कथनमें कुछ भी तथ्यांश नहीं प्रतीत होता, क्योंकि जैसा कि हम पहले कह आये हैं कि आगममें मनुष्यनी शब्द भाववेदकी मुख्यतासे ही प्रयुक्त हुआ है, अतएव वह केवल अपने अर्थमें ही चरितार्थ है। अन्य आपत्तियोंका विधि-निषेध करना उसका काम नहीं है, वह मुख्यरूपसे चरणानुयोगका विषय है।
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