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दो शब्द
1. सम्पादनका कारण
(प्रथम संस्करण से)
सर्वार्थसिद्धिको सम्पादित होकर प्रकाशमें आने में अत्यधिक समय लगा है। लगभग आठ नौ वर्ष पूर्व विशेष वाचनके समय मेरे ध्यानमें यह आया कि सर्वार्थसिद्धिमें ऐसे कई स्थल हैं जिनके कुछ अंशको उसका मल भाग मानने में सन्देह होता है। किन्तु जब कोई वाक्य, वाक्यांश, पद या पदांश लिपिकारकी असावधानी या अन्य कारणसे किसी अन्धका मूल भाग बन जाता है तब फिर उसे बिना आधारके पृथक करने में काफी अड़चनका सामना करना पड़ता है। सर्वार्थसिद्धिके वाचाके समय भी मेरे सामने यह समस्या थी और इसीके फलस्वरूप इसके सम्पादनकी ओर मेरा झुकाव हुआ था।
यह तो स्पष्ट ही है कि आचार्य पुज्यपादने तत्त्वार्थसूत्र प्रथम अध्यायके निर्देशस्वामित्व' और 'सत्संख्या' इन दो सूत्रोंकी व्याख्या षट्खण्डागमके आधारसे की है। इसका विचार आगे चलकर प्रस्तावनामें हम स्वतन्त्र प्रकरण लिखकर करनेवाले हैं। यहाँ केवल यह देखना है कि इन सूत्रोंकी व्याख्यामें कहीं कोई शिथिलता तो नहीं आने पायी और यदि शिथिलताके चिह्न दृष्टिगोचर होते हैं तो उसका कारण क्या है ?
'निशस्वामित्व--' सूत्रकी व्याख्या करते समय आचार्य पूज्यपादने चारों गतियोंके आश्रयसै सभ्यग्दर्शनके स्वामीका निर्देश किया है। वहाँ तिर्यंचनियों में क्षायिक सम्यग्दर्शनके अभावके समर्थन में पूर्व मुद्रित प्रतियोंमें यह वाक्य उपलब्ध होता है
'कुत इत्युक्ते मनुष्यः कर्मभूमिज एव दर्शनमोहक्षपणप्रारम्भको भवति। अपणप्रारम्भकालापर्व तिर्यक्ष बद्धायुष्कोऽपि उत्तनभोगभमितिर्यक्पुरुषवेवोत्पद्यते न तिर्यस्त्रीषु : द्रव्यबेदस्त्रीणांतासां क्षायिकासंभवात् । एवं तिरश्चामप्यपर्याप्तकानां क्षायोपशमिकं ज्ञेयं न पर्याप्तकानाम् ।'
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओंके आगममें इस प्रकारके नियमका निर्देश है कि सम्यग्दृष्टि मर कर किसी भी गतिके स्त्रीवेदियोंमें उत्पन्न नहीं होता।
किन्तु श्वेताम्बर आगम ज्ञाताधकथा नामके छठे अगमें मल्लिनाथ तीर्थकरकी कथा के प्रसंगसे बतलाया गया है कि मल्लिनाथ तीर्थकरने अपने पिछले महाबलके भवमें मायाचारके कारण स्त्रीनामकर्म गोत्र को निष्पन्न किया था जिससे वे तीर्थकरकी पर्यायमें स्त्री हुए। और इसी कारण पीछेके श्वेताम्बर टीकाकारोंने उक्त नियमका यह खुलासा किया है कि 'सम्यग्दृष्टि मरकर स्त्री नहीं होता यह वाहुल्यकी अपेक्षा
यहां हमें इस कथाके सन्दर्भ पर विचार न कर केवल इतना ही देखना है कि यह स्त्री नामकर्म गोत्र क्या वस्तु है। क्या यह नो नोकषायोंमेंसे स्त्रीवेद नामक नोकषाय है या इस द्वारा अङ्गोपाङ्गका निर्देश किया गया है ? जब महाबलको पर्याय में इस कर्मका बन्ध होता है तब वे तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले सम्यग्दृष्टि साधु थे और सम्यग्दृष्टिके स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होता ऐसा कर्मशास्त्रका नियम है क्योंकि स्त्रीवेदका बन्ध दूसरे गुणस्थान तक ही होता है। इसलिए यह बँधनेवाला कर्म स्त्रीवेद नामक नोकषाय तो हो नही सकता। रही अङ्गोपाङ्गकी बात सो एक तो अङ्गोपाङ्गमें ऐसा भेद परिलक्षित नहीं होता। अवान्तर भेदोंकी
1. देखो अध्ययन 8। 2. तए णं से महब्बले अणगारे इमेणं कारणेणं इविणामकम्मं गे यं विध्वंतिसु । ज्ञाता० पृ. 312।
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