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मूलाचार प्रदीप ]
( ६ )
[ प्रथम अधिकार
वाह्यातप्रथमि कान् दिग्वस्त्रालंकृतान् परान् । मदीयांश्च गुरुप्रोमि, विश्वाम् गुरुगुप्तये ||
अर्थ - जो बाह्य और अंतरंग परिग्रहसे सर्वथा रहित हैं, जो दिशारूपो वस्त्रों से ही सुशोभित हैं अर्थात् दिगम्बर हैं और इसलिये जो उत्कृष्ट हैं ऐसे अपने समस्त गुरुओं के लिये भी मैं उनके श्रेष्ठ गुण प्राप्त करने के लिये नमस्कार करता हूं ||३४|| इति तद्विघ्नान्यै छ, मांगल्यार्थ प्रसिद्धये । स्तुता ये वंदिता ग्रंथारम्भेऽच्छ तयोगिनः ||३५|| इष्ट इष्टाप्नये संतु कुवंतु मंगलं ते ये, विश्वमांगल्य कारिणः ।। ३६ । १ अर्थ -- इसप्रकार ग्रंथके प्रारम्भ में इसकी रचना में होनेवाले विघ्नों को दूर करने के लिये तथा मंगलमय पदार्थों को प्राप्ति के लिये जिन अरहंत, शास्त्र और सुनियों की वंदना को हैं; या उनकी स्तुति की है, ऐसे वे समस्त संसार में मंगल करने वाले देव, शास्त्र, गुरु, हृष्ट या पंचपरमेष्ठी मुझे इष्ट की प्राप्ति करें । अर्थात् मेरे ग्रंथको पूर्ण करें; उसमें होने वाले विघ्नों को नष्ट करें, और मेरे लिये मंगल करें । ।। ३५-३६।।
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इष्टवान् प्रणम्येति, विशायार्थान् परान् शुभान् । मूला चाराधि सग्रंथानामाचार प्रवतंये ३७ महाग्रंथं करिष्येऽहं श्री मूलाधार दोपकम् । हिताय मे यतीनां व, शुद्धाधारार्थ बेशकम् ||३८||
अर्थ - इसप्रकार मैं अपने इष्ट देवों को नमस्कार कर तथा शुभ और श्रेष्ठ अर्थों को जानकर, मूलाचार आदि श्रेष्ठ ग्रंथों में कहे हुये आचारों को प्रवृत्ति करने के लिये तथा अपना और मुनियों का हित करने के लिए, शुद्धाचार के स्वरूप का निरूपण करने वाले 'मूलाधार - प्रदीपक' नामके महाग्रंथ की मैं रचना करता हूं ॥३७-३८ ।। प्राचाशंग का वर्णन -
श्राचागं पवष्टादशसहस्रपदास्थितम् । श्रुतकेवलिभिः प्रोक्तम्, हार्थगम्भीरमधिवत् ||३६|| अर्थ - आचारांग नामके श्रंग में, अठारह हजार पद हैं। वह श्रुतके वलियों के द्वारा कहा हुआ है तथा समुद्र के समान अर्थों से महा गंभीर है ॥ ३६॥
शत षोडश कोटद्यामा, चतुस्त्रिशच्च कोटयः । यशोति स्वलक्षाण्यष्टसप्तति शतान्यपि ॥ ४० भ्रष्टाशीतिश्च दर्जा, इति संख्या जिनोदिता । आगमेक्षर संख्याभिः पदेकस्य न चाग्यथा ॥
अर्थ - भगवान् जिनेन्द्रदेव ने अपने कहे हुए आगम में एक-एक पदके अक्षरों की संख्या सोलह अरब, चौंतीस करोड, तिरासी लाख सात हजार, आठ सो, अट्ठासी बतलाई है ।।४०-४१॥
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