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मूलाचार प्रदोप]
[प्रथम अधिकार जो शुभ देनेवाली है, पाप रहित है, गणघरदेवों ने जिसकी पूजा को है, स्तुति की है और खूब वृद्धि की है, ऐसी सरस्वती देवी मेरे शुद्ध आत्माको प्राप्ति करो ॥२६-२७॥ अंग पूर्व प्रकोर्णादीनामाचाराद्यर्थसूचकान् । त्रिजगद्दोपकान् सर्वान् तदर्थाप्रय भजेन्वहम् ॥२८॥
अर्थ-इसप्रकार अंग, पूर्व और प्रकीर्ण प्रावि में कहे हये प्राचार प्रादि के अर्थ को सूचित करनेवाले और तीनों जगत् के पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले जितने भी महापुरुष हैं उन सबको मैं उन अंगपूर्व और प्रकोरगंक का अर्थ जानने के लिये प्रति दिन सेवा करता हूं ॥२८॥ सुधर्म सूरिजम्बू स्वामिनी केवललोचनौ। शुद्धाचारोन्धितौ नौमि, स्वाचारांगररूपको ॥२६॥
अर्थ-केवल ज्ञानरूपी नेत्रोंको धारण करनेवाले, शुद्धाचार को पालन करने थाले और अपने प्राचारांग को निरूपण करनेवाले सुधर्मा गणधर और जम्बू स्वामी को भी मैं नमस्कार करता हूं ॥२६॥ विष्णुश्च नंविमित्राख्योऽपराजितो मुनीश्वरः । गोवर्द्धनो मुमुक्षुश्च भद्रबाहर्जगन्तुतः ॥३०॥ श्रुतकेवलिनोऽत्री, पंचाचारादि देशिनः । परमाचार सम्पन्नाः, कीतिताः संतु में घिदे ।।३।।
__ अर्थ-(१) विष्णु (२) नंदिमित्र (३) मुनिराज अपराजित (४) मोक्ष को इच्छा करने वाले गोवर्द्धन और समस्त संसार जिनको नमस्कार करता है ऐसे भद्रबाहु ये पांच इस पंचम कालमें श्रुतकेवली हुये हैं। ये पांचों हो श्रुतकेवली पंचाचार का उपदेश देनेवाले हैं और परमोत्कृष्ट आचार को पालन करनेवाले हैं, इसलिए मैं उनकी स्तुति करता हूं जिससे कि मुझे शुद्ध आत्माको प्राप्ति हो ॥३०-३१।। _ विशाखाचार्यमुख्या मे, सूरयो बहवो भुधि । प्राचाररांगादिशास्त्रमाः, दध स्ते मे स्तुलाः श्रुतम् ।।
अर्थ- इस संसार में विशाखाचार्य को आदि लेकर और भी अनेक आचार्य हुये हैं जो कि आचारांगादि शास्त्रों के जानकार हैं; उनको मैं स्तुति करता हूं; वे सब मुझे श्रुतज्ञानको प्रदान करें ॥३२॥ कवीता शादिनो ये श्री कुदकुवावि सूरयः । तान् स्तुवे सत्कवित्वाय, स्वावारश्रुतसूचकान् ।
___ अर्थ-आचार प्ररूपक श्रुतज्ञान को निरूपण करनेवाले और भी जो कविराज या वादी मुनि हुये हैं अथवा कुबकुदादिक आचार्य हुये हैं उन सबको मैं श्रेष्ठ कवित्व प्राप्त करने के लिये स्तुति करता हूं ॥३३।।