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मुलाचार प्रदीप ]
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[ प्रथम अधिकार गुफा वा पर्वतों में निवास करते हैं, उन साधु परमेष्ठियों के लिये मैं तपश्चरण की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूं ।। १८-१६॥
प्रारंभ तुकालस्य, रचितं पेन धीमता । श्राधारांगं शिवाप्तये व वृषभसेन गणेशिना ||२०|| गुरोस्तदर्थमादाय तं सप्त विभूषितम् । चतुर्ज्ञानपरं स्तौमि, कवोन् सद्गुणाप्तये ॥२१॥
अर्थ -- जिन श्री ऋषभदेव महाचतुर गणधर ने चौथे कालके प्रारम्भ में मोक्ष प्राप्त करने कराने के लिए अपने गुरु भगवान् वृषभदेव से उस अंग का अर्थ लेकर श्राचारांग की रचना की है, तथा जो सप्त ऋद्धियों से विभूषित हैं और चारों ज्ञानों को धारण करने वाले हैं ऐसे कवियों के इन्द्र भगवान् वृषभसेन गरगधर की मैं उनके गुरणों की प्राप्ति के लिए स्तुति करता हूं ॥ २०-२१।।
पदरूपेण येनाचारांगं रचितं परम् । श्राचारवृत्तयेनावारनिषेधाश्च योगिनाम् ।। २२ ।। तस्यां वर्ततेऽद्यापि स्थास्यत्यग्रं न संशयः । स्तुवेऽहं सं गणाधीशं गौतमं गुणवारिधिम् ।।२३।। अर्थ - जिन भगवान् गौतम गणधर ने मुनियों के प्राचार की प्रवृत्ति करने के लिये तथा अनाचार का निषेध करने के लिये पद रूपसे श्राचारांग को उत्कृष्ट रचना की है तथा उसी आचारांग का अंश आज भी विद्यमान है और भागे भी ग्रवश्य निःसंदेह बना रहेगा ऐसे गुणोंके समुद्र भगवान् गौतम गणधर को मैं स्तुति करता हूं ।।२२-२३ ।।
शेषा पराधराः, आचारांगादि रचने क्षमाः । चतुर्झना खिलार्थज्ञा, ये महाचार मृदिताः ||२४|| मोक्षमागं प्रणेतारो महान्तो मुक्तिगामिनः । तान् सर्वान् शिरसा वंदे, तत्समस्त गुप्तये ॥
अर्थ -- बाकी के जितने गणधर हैं जो कि श्राचारांगारिक की रचना करने में समर्थ हैं; जो अपने चारों ज्ञानोंसे समस्त पदार्थों के जानकार हैं, जो महा आचारों से विभूषित हैं । मोक्षमार्ग को निरूपण करने वाले हैं, जो महापुरुष हैं और मोक्षगामी हैं, ऐसे समस्त गणधरों को मैं उन्हके समस्त गुण प्राप्त करने के लिये मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ ।। २४-२५ ।।
यत्प्रसादेन मेश्रामृत्, रागवूरा महामतिः । समर्थानेकशास्त्राणां रचने शुभदाना ||२६|| सा जिनेन्द्र मुखोपन्ना भारती पूजिता स्तुता । वदिता श्री गणेशा, मया चास्तु विदे मम ॥ अर्थ - भगवान् जिनेन्द्रदेव के मुखसे उत्पन्न हुई जिस सरस्वती के प्रसाद से मेरी यह महाबुद्धि रागरहित होकर अनेक शास्त्रों की रचना करनेमें समर्थ हुई है तथा