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श्रीआदिनाथ-चरित
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भगवानकी आयु जब एक बरसकी हो गई, तब सौधर्मेन्द्र वंश स्थापन करनेके लिए आया। सेवकको खाली हाथ स्वामीके दर्शन करनेके लिये नहीं जाना चाहिए, इस खयालसे इन्द्र अपने हाथमें इक्षुयष्टि (गन्ना) लेता गया । वह पहुँचा उस समय भगवान नाभि राजाकी गोदमें बैठे हुए थे । प्रभुने अवविज्ञान द्वारा इन्द्रके आनेका कारण जाना* । उन्होंने इक्षु लेनेके लिए हाथ बढ़ाया । इन्द्रने प्रणाम करके इक्षुयष्टि प्रभुके अर्पण की । प्रभुने इक्षु ग्रहण किया । इसलिए उनके वंशका नाम ' इक्ष्वाकु ' स्थापनकर' इन्द्र स्वर्गमें गया।
युगादिनाथ ( ऋषभदेव )का शरीर पसीने, रोग और मलसे रहित था । वह सुगंधित, सुंदर आकारवाला और स्वर्णकमलके समान शोभता था। उसमें मांस और रुधिर गऊके दुग्धकी धारके समान उज्ज्वल और दुर्गध विहीन थे। उनके आहार (भोजन) निहार (दिशा फिरने) की विधि चर्मचक्षुके अगोचर थे। उनके श्वासकी खुशबू विकसित कमलके समान थी। ये चारों अतिशय प्रभुको जन्मसे ही प्राप्त हुए थे। वऋषभ नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थानके वे धारी थे। देवता बालरूप धारण कर प्रभुके साथ क्रीडा करने आते थे । कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यने उसका वर्णन इन शब्दोंमें किया है:
*-तीर्थकरोंको जन्मसे ही अवाधिज्ञान होता है।
8-तीर्थकरोंके चौतीस अतिशय होते हैं। उन्होंमें ये प्रारंभके चार हैं । देखो तीर्थकरचारत-भूमिका पृष्ट १-३६ तक । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com