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जैन-रत्न mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm "हे गौतम ! तुम्हें केवलज्ञान होगा; मगर कुछ समयके बाद। तुमको मुझपर बहुत मोह है । इस लिए जबतक तुम्हारा मोह नहीं छूटेगा तबतक तुम्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति भी नहीं होगी।" अंबड़ नामका परिव्राजक प्रभुको वंदना करने आया। उसके
हाथमें छत्री और त्रिदंड थे। उसने अंबड सन्यासीका आगमन बड़े ही भक्तिभावसे प्रभुको वंदना
की और कहा:-" हे वीतराग! आपकी सेवा करनेकी अपेक्षा आपकी आज्ञा पालना विशेष लाभकारी है । जो आपकी आज्ञाके अनुसार चलते हैं, उन्हें मोक्ष मिलता है। आपकी आज्ञा है कि हेय (छोड़ने योग्य ) का त्याग किया जाय और उपादेय (ग्रहण करने योग्य ) को स्वीकारा जाय । आपकी आज्ञा है कि आस्रव हेय है और संवर उपादेय है । आस्रव संसार-भ्रमणका हेतु है और संवरसे मोक्षकी प्राप्ति होती है । दीनता छोड़ प्रसन्न मनसे जो आपकी इस आज्ञाको मानते हैं वे मोक्षमें जाते हैं।"
प्रभुका उपदेश सुननेके बाद अंबड़ जब राजगृही जानेको तैयार हुआ तब प्रभुने अंबड़को कहा:-"तुम राजगृहीमें नाग नामक सारथीकी स्त्री सुलसासे सुखसाता पूछना ।"
१-सुलसा परम श्राविका थी । महावीर स्वामीने सुलसाहीकी सुखसाता क्यों पुछाई ? उसके परम श्राविकापनकी जाँच करना चाहिए । यह सोचकर अंबड़ने अनेक युक्तियोंद्वारा उसे श्राविकापनसे च्युत करनेकी कोशिश की; परंतु वह निष्फल हुआ । तब उसको विश्वास हुआ कि, महावीर स्वामीने सुलसाके प्रति इतना भाव दिखाया वह योग्य ही था। यह देवी सोलह सतियोंमें से एक हैं । इनका विस्तृत
चरित्र अगले भागोंमें दिया जायगा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com