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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध) था। मगर मैं मास्टर लक्ष्मीचंदजी और लखमशीभाईकी सहायतासे स्कूलमें ऊपर नंबर रखता था इसलिए लखमसीमाईने मेरे पितापर इस बातका दबाव डाला कि, वे मुझे आगे पढावें । इतना ही नहीं वे अपते जेव-खर्चसे मुझको भी सहायता देते रहते थे। इससे मैं भी सन् १८९८ में मेट्रिक पास कर सका । श्रीयुत लखमसी भाई सेंटझेविअर्स कॉलेजमें दाखिल हुए थे। उन्हें उस कॉलेजने जो सहूलियते ( सगवड़ें ) दे रक्खीं थीं, वे मुझे देनेसे इनकार किया तब लखमसीमाईने युनिवर्सिटिसे मेरे मार्क प्राप्त किये और अपने पाससे डिपाजिट मरकर मुझे एल्फिन्स्टन कॉलेजमें दाखिल करा दिया। मेरे मार्क अच्छे थे इसलिए मेरी कॉलेनकी फी माफ हो गई । इतना ही नहीं मुझे दस रुपये मासिककी स्कॉलशिप भी मिली । लखमसीमाईकी सहायता तो चाल ही थी।"
सन् १८९९ वे में लखमसीमाई बी. ए. पास हुए। लेटिन भाषाका भी इनका अभ्यास अच्छा था। भली माँति लेटिनमें बातचीत कर मकते थे । ये कच्छी दसा भोसवाल ज्ञातिमें दूसरे ग्रेन्युएट थे। सबसे पहले ग्रेन्युएट इस नातिमें वीरजी उद्धा
अपनी परिस्थितियों के कारण उन्होंने बी. ए. पास करके मेसर्स कॅप्टेन और वैद्य सॉलिसिटरके ऑफिसमें मेनेजिंग क्लर्ककी नौकरी कर ली। मगर साथमें लॉ कॉलेज भी अटेंड करते रहे। सन् १९०१ में उन्होंने एल एल. बी. की परीक्षा पास की।
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